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________________ ११९ खरोष्ठी लिपि में निम्नवर्ण नहीं मिलते हैं-- - आ, ई, ऊ, ऐ, ओ और ङ । इसके अतिरिक्त ऋ, ऋ, लृ, लृ और संयुक्त व्यंजन क्ष, त्र, ज्ञ, भी नहीं हैं । "ध्यायेदनादि सिद्धान्तविख्यातां वर्णमातृकाम् । आदिनाथमुखोत्पन्नां विश्वागम विधायिनीम् ॥” -- तत्त्वार्थसार दीपक सन्दर्भ, ३५ -- अनादि सिद्धान्त के रूप में प्रसिद्ध एवं सम्पूर्ण आगमों की निर्मात्री, प्रजापति आदिनाथ ( ऋषभदेव ) के मुख से उत्पन्न वर्णमातृका का ध्यान करना चाहिए । वर्ण विपर्यय एक महान् वैदिक ऋषि का नाम जनता ने 'विश्वामित्र' रख दिया । किन्तु संस्कृत की सन्धि के अनुसार - विश्व + अमित्र विश्वामित्र | विश्वामित्र शब्द का अर्थ 'समस्त जगत् का शत्रु' होता है जो उस ऋषि को अनादरसूचक अपशब्द ( गाली ) समान है । अतः संस्कृत व्याकरणकार पाणिनि को 'विश्वामित्र' शब्द का अर्थ 'जगत् का मित्र' ठहराने के लिये, यानि जनता के अशुद्ध उच्चारण को शुद्ध घोषित करने के लिये एक नया सूत्र बनाना पड़ा । शेर सदा अन्य निर्बल प्राणियों की हिंसा किया करता है । अतः मूलधातु के अनुसार उसका नाम 'हिंस' होना चाहिये, परन्तु जनता उसको 'सिंह' शब्द से उच्चारण कर रही थी, इस कारण व्याकरण को यह शब्द 'हिंस' के बजाय उलटे रूप में 'सिंह' मानने के लिये बाध्य होना पड़ा, इसके लिये उसने लिखा 'सिंहे वर्ण विपर्ययः ।' पृषत् + उदर इन दो शब्दों को मिलकर सन्धि के नियमों के अनुसार 'पृषदुदर' पतली कमर वाला या पतले पेट वाला) शुद्ध रूप में होना चाहिये, परन्तु जनता ने 'पृषोदर' शब्द अपना लिया, तब व्याकरण को जनता की इस अशुद्धि को भी शुद्ध ठहराने के लिये नया नियम बनाना पड़ा । सिन्धु को सिन्धु रहना चाहिए था, किन्तु वह हिन्दु हो गया । इसी प्रकार सप्ताह का हप्ता और सोम का होम बन गया । अतः बहुत पहले ही यास्क को नियम बनाना पड़ा था -- "अथ आदिवर्णविपर्ययोऽपि शब्दविपर्यास हेतुतयोपन्यस्तो यास्केन । अयमपि नियमः सर्वभाषासाधारणो दृश्यते । " हृद को ह, गुह्यम् को गुय्हं, आलान को आणाल और अचलपुर को अलचपुर देखकर हेमचन्द्राचार्य ने अपने सिद्धेहेमशब्दानुशासन में वर्णविपर्यय की परिभाषा इस प्रकार लिखी, "किसी शब्द के स्वर, व्यञ्जन अथवा अक्षर जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं, तो इनके परस्पर परिवर्तन को विपर्यय कहा जाता है ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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