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मुद्रा लेखों में नये अक्षर--ज्ञ, य, स, ह, क्ष, म तथा इ सामने आये। सिक्कों पर स्थान की कमी के कारण इस शैली को अपनाना पड़ा। यह सच है कि चौथी सदी तक आतेआते मौर्य लिपि में आमूल परिवर्तन हुआ। चौथी सदी से छठी सदी तक नर्वदा के उत्तर में प्रचलित लिपि को गुप्त लिपि कहा गया । अवश्य ही यह नाम गुप्त शासकों के आधार पर आधृत था ।१
गुप्त लिपि ___गुप्त लिपि लोकप्रिय बनी । सर्वत्र उसका प्रचार होने लगा । संस्कृत भाषा ने उसे अपना माध्यम माना । जिह्वामूलीय और उपपध्मानीय का सर्वप्रथम उपयोग गुप्त लिपि में ही देखने को मिलता है। इसका प्रमाण भिलसा के समीप उदयगिरि के एक लेख में पाया जाता है ।
गुप्त लिपि को मुख्य रूप से दो शैलियों में विभक्त किया जा सकता है--एक पश्चिमी और दूसरी पूर्वी । २ कुमार गुप्त प्रथम ने भिलसद् (एटा जिला) में एक लेख खुदवाया था, जो पश्चिमी शैली का प्रतिनिधि लेख है। इसकी विशेषता है कि इसके स्वर बिलकुल स्पष्ट हैं। इन्हीं के कारण आगे चल कर 'कुटिल लिपि' का आविर्भाव हआ। मथुरा के जैनों के दान लेखों में भी यही शैली प्रयुक्त हुई। मालवा के उदयगिरि का जैन अभिलेख और राजस्थान का विजयगढ़ अभिलेख भी इसी शैली में आते हैं ।
पूर्वी शैली का प्रतिनिधि लेख प्रयाग का स्तम्भ लेख है। इसमें ल, स, ह, म अक्षरों का नया रूप दिखाई पड़ता है। इसी में इ के लिए दो बिन्दु तथा सामने लम्बवत् रेखा का प्रयोग किया गया है। सभी अक्षरों में कोण तथा शिरोरेखा पाई जाती है। इससे आगे चल कर छठी शताब्दी में सिद्धमातृका लिपि का विकास हुआ । बोध गया का ५८८-८९ का प्रसिद्ध लेख इसी लिपि में लिखा गया था । फ्लीट ने इस अभिलेख का सम्पादन किया है। बूलर इसे न्यूनकोणीय लिपि कहते हैं। यह नाम देने के सन्दर्भ में उनका कथन है, “इन रूपों की मुख्य विशेषता यह है कि इनमें अक्षर दायें से बायें को झुकते हैं । नीचे या दायीं ओर आखिर में एक न्यूनकोण बनता है । अक्षरों में खड़ी या तिरछी रेखाओं के सिरों पर हमेशा छोटी-सी कील बनती है । अगली चार शताब्दियों के बहुसंख्यक अभिलेखों में ये विशेषताएँ मिलती है। इसलिए इस वर्ग के अक्षरों को मैं न्यूनकोणीय अक्षर ही कहना उचित १. 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन', पृष्ठ २५१. 2. Indian Antiquary, XXI, p. 29. ३. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ ६४. ४. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन पृष्ठ २५२. ५. देखिए गुप्त इन्सक्रिप्शन्स, फ्लीट-सम्पादित.
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