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________________ समझता हूँ ।" १ इसका भारतीय नाम सिद्धमातृका लिपि था । बरूनी ने इसे स्वीकार किया है और काश्मीर तथा बनारस में इसका प्रचलन भी बताया है । २ १०७ बूलर ने न्यूनकोणीय लिपि के विकास को तीन चरणों में बांटा है। प्रथम चरण में गया और लक्खामण्डल के अभिलेख, द्वितीय चरण में आदित्यसेन की अफसड़ प्रशस्ति के अक्षर (सातवीं सदी) और तीसरे चरण में मुलताई ताम्रपट्ट (७०८९ ) और सन् ८७६ का ग्वालियर का अभिलेख आते हैं। बूलर ने माना है कि आठवीं दसवीं शती में न्यूनकोणीय अथवा सिद्धमातृका लिपि धीरे-धीरे विकसित होती होती अपनी उत्तराधिकारिणी नागरी लिपि की ओर चली जाती है । नागरी के पुराने भारतीय रूप और इसमें सिर्फ इतना अन्तर है कि नागरी में खड़ी लकीरों के सिरों पर कीलों के स्थान पर आड़ी रेखाएँ बनाते हैं । 3 यह सच है कि सातवीं शताब्दी से 'गुप्त ब्राह्मी' में परिवर्तन आरम्भ हो गया था । हर्षवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात्, राजनैतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई । उसका प्रभाव लिपि पर भी पड़ा। लिपि के भी अनेक रूप हो गये, अर्थात् उसने अनेक रूप धारण कर लिए। इसे विकास भी कह सकते हैं । इनमें न्यूनकोणीय अथवा सिद्धमातृका लिपि की बात ऊपर कही जा चुकी है । सिद्धमातृका और नागरीलिपि में बहुत थोड़ा अन्तर है, यह भी कहा जा चुका है । यहाँ नागरीलिपि के सम्बन्ध में विशदता अभीष्ट प्रतीत होती है । नागर लिपि इसे नागरी या देवनागरी लिपि भी कहते हैं । इसके नामकरण के सम्बन्ध में अनेक मत हैं । कतिपय विद्वान् नागरी का सम्बन्ध नाग लिपि से जोड़ते हैं । नाग लिपि भारत की पुरानी लिपि है । उसका उल्लेख बौद्धों के 'ललित विस्तर' नाम के ग्रंथ में हुआ है । डा० एल० डी० वार्नेट के अनुसार नाग लिपि और नागरी लिपि में कोई सम्बन्ध नहीं है । * दोनों में नितान्त भिन्नता है । नाग लिपि से नागरी लिपि के विकास का कहीं कोई सूत्र नहीं मिलता। गुजरात के नागर ब्राह्मणों से इस लिपि का विकास मानना नितांत अनुपयुक्त है । नाम साम्य का क्षीण सूत्र कोई ठोस आधार नहीं कहा जा सकता ।। ऐसी सम्भावनाओं का शोध-खोज के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं है । इसी प्रकार यह मानना कि नगर से नागर लिपि का विकास हुआ, अपने में ही व्यर्थ - सा है । कुछ विद्वानों का यह अभिमत कि -- "देवभाषा संस्कृत १. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ १०२. २. इण्डिया I, १७३ ( सचाऊ ) ३. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ १०३-४. ४. हिन्दी भाषा : उद्गम और विकास, पृष्ठ ५८१. ५. हिन्दी भाषा : उद्गम और विकास, पृष्ठ ५८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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