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________________ १०५ निरवंसिया चल बसीं । ब्राह्मी की कोख फलवती थी । उसका वंश चलता रहा । आज देवनागरी आदि साम्प्रतिक लिपियाँ उसी से सम्बद्ध हैं । ईसवी पूर्व ५०० से ३५० ई. तक ब्राह्मी में अनेक परिवर्तन होते रहे, किन्तु तब तक वह लिपि ब्राह्मी के नाम से ही पुकारी जाती थी । ईसवी सन् ३५० के बाद वह स्पष्ट रूप से उत्तरी और दक्षिणी शैलियों में विभक्त हो । उनके नाम भी भिन्न हो गये । प्राचीन मौर्य एवं शुंग युग की ब्राह्मी चौथी शताब्दी में गुप्त ब्राह्मी में परिणत हुई। गुप्त युग के पूर्व - ई० पू० दूसरी शताब्दी में ही अशोक के लेखों की लिपि सेलिंग लिपि में स्पष्ट भिन्नता उत्पन्न हो गई थी । हाथीगुम्फ शिलालेख से यह स्पष्ट है । हाथीगुम्फ के अक्षरों के सिरे छोटी रेखा आती है । अशोककालीन ब्राह्मी में अक्षरों की गोलाई थी, रेखा नहीं थी, जो आगे चल कर प्रकट हो गई । ब्रह्म में दीर्घ तथा ऊ के लिए क्रमशः सिरे तथा नीचे दो रेखा जोड़ दी जाती थीं। हाथी गुम्फ में यह बात दृष्टिगोचर नहीं होती। इसी प्रकार नागार्जुनी गुफा लेख (फलक ii, स्त० xvii) के अक्षरों को अशोक के आदेश लेखों के अक्षरों से पृथक् किया जा सकता है । नागार्जुनी कोंडा के लेखों में ज, न, द, ल, अक्षर काफी विकसित हैं और इनमें खड़ी लकीरें काफी छोटी हो चुकी हैं । २ डा० के० पी० जायसवाल 'हाथीगुम्फ' शिलालेख की लिपि को केवल ब्राह्मी मानते हैं, न मौर्य, न गुप्त और न शुङ्ग । डा० बुलर गुप्त युग से पूर्व उत्तरी भारत की शैली को दो भागों में विभक्त हुआ मानते हैं - एक है शुंग लिपि, जिसमें उत्तरी क्षत्रप रंजुवल का मथुरा लेख लिखा गया और दूसरी है कुषाण लिपि, जिसमें कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के लेख प्राप्त होते हैं । गुप्त युग के ही पूर्व - ३५०ई०पू०, जब समस्त भारत की लिपि का नाम ब्राह्मी था, उत्तरी और दक्षिणी लिपियों के लेखों में अन्तर प्रारम्भ हो गया था । उत्तरी भारत की शुंगकालीन भरहुत वेदिका के लेख और दक्षिण के शासक सातवाहन के नासिक और नानाघाट के लेखों की लिपि में स्पष्ट भिन्नता है, कम से कम समान तो नहीं है । मौर्यकालीन लिपि ( अशोक लिपि) में स्वर के चिन्ह अक्षर के सिरे पर या नीचे लगाये जाते थे, विसर्ग का नाम नहीं था और ऋ का सर्वथा अभाव था। सबसे पहले उनका प्रयोग ईसवी सन् १२०-२५ के उषवदत्त के नासिक लेख में प्राप्त होता है। संयुक्ताक्षरों का निश्चित प्रयोग रुद्रदामन के ईसवी सन् १५० के लेख में मिलता है । ३ इस प्रकार, ब्राह्मी एक नाम के होते हुए भी, उत्तर और दक्षिण, और उत्तर के भी विभिन्न भागों की लिपियों में देशभेद और राज्य भेद के कारण भेद हो गया था । स्थान की कमी और अधिकता भी शैलियों के अन्तर का कारण बनी । पश्चिमी भारत के क्षत्रप और सातवाहन नरेशों के १. डॉ० वासुदेव उपाध्याय, 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन', पृष्ठ २५१. २. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ ६८. ३. 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन', पृष्ठ २५०-५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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