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भाषाओं की सभी लिपियाँ ब्राह्मी से ही निकली हैं। ब्राह्मी का ज्ञान अशोक के समय दक्षिण भारत में भी प्रचलित रहा होगा, अन्यथा अशोक ने अपने अभिलेख, दक्षिण में भी, ब्राह्मी में ही नहीं खुदवाये होते।"१ श्री सिद्धगोपाल काव्यतीर्थ ने ब्राह्मी लिपि का प्रसार सिंहल, बर्मा और सुदूर जावा तक माना है। 'कन्नड़ साहित्य का नवीन इतिहास' नाम के अपने ग्रन्थ में उन्होंने लिखा है, "ब्राह्मी लिपि की वही शाखा, जिससे कन्नड़ लिपि निकली है, दक्षिण में सिंहल तथा पूर्व में सुदूर जावा तक जा पहुँची है। अत: सिंहल तथा बर्मा
आदि की लिपियाँ कन्नड़ तथा तेलगु लिपि से मिलती-जुलती हैं। तमिल लिपि ब्राह्मी लिपि की एक दूसरी शाखा से निकली है, अत: कन्नड़ और तेलगु लिपि से भिन्न है। यों तो ब्राह्मी लिपि से निकली होने के कारण भारत की तथा एशिया की अन्य सभी लिपियों में कुछ समानताएँ हैं।" २
ब्राह्मी लिपि भारत के सभी भागों और भारत के बाहर सुदूर तक प्रसृत थी। इस कार्य में यायावर श्रमण जैन मुनियों का महत्वपूर्ण योगदान था। 'एन इन्ट्रोडक्शन टु जैनिज्म' नाम के ग्रन्थ में लिखा है कि कृषियुग के प्रारम्भ से लेकर सिकन्दर के समय तक तक्षशिला में जैनमुनियों का निर्बाध विचरण था, इसमें कोई संदेह नहीं किया जा सकता। महाराज सम्प्रति जैन धर्म का अनुयायी था। उसने जैनधर्म के प्रचार के लिए बहुत उद्योग किया और देशविदेश में जैन साधुओं को भी धर्म प्रचार के लिए भेजा। बौद्ध महावंश के 'तं दिस्वान पलायत्त निगण्ठो गिरिनायको' से स्पष्ट ज्ञात होता है कि राजा सम्प्रति के समय में सीलोन (लंका) में भी दिगम्बर मनियों ने धर्म प्रचार किया था। श्री नगेन्द्रनाथ बसु ने 'हिन्दी विश्वकोष' में लिखा है. “तिव्बत हिमिन मठ में रूसी पर्यटक नोटोविच ने एक पाली भाषा का ग्रन्थ प्राप्त किया था। उसमें लिखा है कि ईसा भारत तथा भोट देश में आकर अज्ञातवास में रहा था और उसने जैन-साधुओं के साथ साक्षात्कार किया था ।" ५ प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता पं. सुन्दर लाल का अभिमत है कि जैन सन्त-महात्मा विभिन्न देशों में जा-जाकर बसे थे और धर्म प्रचार किया था। उन्होंने 'हजरत ईसा और ईसाई-धर्म' नाम के ग्रन्थ में लिखा है, "उस जमाने की तवारीख से
१. 'संस्कृति के चार अध्याय', पृष्ठ ४४. २. 'कन्नड़ साहित्य का इतिहास, पृष्ठ ६. ३. मिलाइए-Kausambi D. D., An Introduction to the study of Indian History', Bombay, 1952, p. 180.
और "The life of the Buddha, E.I. Thomas, 1927, p. 157. ४. 'भारत का इतिहास', सत्यकेतु विद्यालंकार, पृ० २१८. ५. हिन्दी विश्वकोष, भाग ३, श्री नगेन्द्रनाथ वसु, पृष्ठ १२८.
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