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________________ १०२ खरोट्टी, जिसे विद्वानों ने पहले बैक्टीरियन, इण्डोबैक्टीरियन, बैक्ट्रोपालि, ऐरियानो पालि आदि नामों से अभिहित किया था। दूसरी है द्राविडी या डामिली। शायद यह ब्राह्मी का ही एक स्वतन्त्र भेद है। इसका पता भट्टप्रोलु के स्तूप से प्राप्त धातुपात्रों से लगा है। तीसरी है पुष्करसारि या पुस्खरसारिया। पाणिनि, आपस्तम्ब धर्मसूत्र और अन्य ग्रन्थों में इस नाम के एक या अनेक धर्मशास्त्रियों और वैय्याकरणों का उल्लेख है। असम्भव नहीं कि पुष्कर सद् वंश के किसी व्यक्ति ने किसी नई लिपि का सृजन किया हो अथवा किसी प्रचलित लिपि का संस्कार कर नया नाम दिया हो। चौथी है-यवणालिया, जिसे पाणिनि ने यवनानी कहा है । यह एक यूनानी लिपि थी। डा. बूलर का अभिमत है कि सिकन्दर के आक्रमण के पूर्व उत्तर-पश्चिमी भारत में यूनानी वर्णमाला का प्रयोग होता था। उन्होंने प्रमाण स्वरूप कुछ ऐसे सिक्कों की बात की है, जो सिकन्दर से पहले के हैं और उस प्रदेश में प्राप्त हुए हैं। उन पर यूनानी लिपि में अभिलेख हैं। उनकी रचना यूनानी एटिक द्राम की अनुकृति पर है। बूलर ने ई. पू. ५०९ में स्काईलैक्स के उत्तर-पश्चिमी भारत पर आक्रमण के समय से ही यहाँ पर यूनानी लिपि के प्रचार की बात स्वीकार की है । इस प्रकार बूलर बम्भी, खरोट्री, दामि (द्राविड़ी) , पुक्खरसारिया और जवणालिया (यूनानी) को भारत की ऐतिहासिक लिपियाँ स्वीकार करते हैं। इस सन्दर्भ में वे जैन सूची को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनका कथन है, “अभिलेख शास्त्र, पाणिनि तथा स्वतन्त्र उत्तरी बौद्ध परम्पराओं की साक्षी से यह सिद्ध होता है कि जैनों की सूची में जिन लिपियों की गणना है, उनमें कुछ तो निश्चय ही प्राचीन हैं और उनका पर्याप्त ऐतिहासिक मूल्य है। इस बात की पर्याप्त सम्भावना है कि ई. पू. ३०० में भारत में अनेक लिपियाँ ज्ञात या प्रचलित थीं।"१ प्रसारोन्मुखा ब्राह्मी भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी से निकली हैं, ऐसा बड़े-बड़े विद्वानों का अभिमत है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के सम्पादन में प्रकाशित 'गंगा' के पुरातत्त्वांक में लिखा है, "एक ब्राह्मी लिपि को अगर विद्यार्थी अच्छी तरह सीख जाये तो वह अन्य लिपियों को थोड़े ही परिश्रम से सीख सकता है और शिलालेख आदि को भी कुछ कुछ पढ़ सकता है, क्योंकि सारी लिपियाँ ब्राह्मी से ही उद्भूत हुई है।"२ डा. रामधारीसिंह 'दिनकर' का कथन है कि "द्राविड़ १. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ ५. २. गंगा, पुरातत्त्वविशेषांक-देखिए साहित्याचार्य मग का लेख-भारतीयों का लिपिज्ञान, सन् १९३३ ई० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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