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________________ ९७ सिखाई थीं । १ तिलोयपण्णत्ति प्राकृत का महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसमें यतिवृषभाचार्य ने भारत का वर्णन करते हुए लिखा है "णाणा जणवदणिहिदो अठ्ठारसदेसभाससंजुत्तो । कुंजरतुरगादि जुदो णर-णारी मण्डितो रम्मो ॥२ अर्थ - भारतवर्ष नाना जनपदयुक्त, अठ्ठारहदेश भाषा संयुक्त, कुंजरतुरगादियुक्त और नर-नारियों से मण्डित सुन्दर देश है । यतिवृषभ ने एक दूसरे स्थान पर इन अठारह देशभाषाओं को महाभाषा की संज्ञा दी है । इनके अतिरिक्त सात सौ के लगभग लघुभाषाएँ थीं। आगे चलकर इसी को एक हिन्दी कवि ने - "दशअष्टमहाभाषा समेत । लघुभाषासात शतकसुचेत ॥ " के रूप में व्यक्त किया । इस प्रसंग में श्री रामधारीसिंह दिनकर के प्रसिद्ध ग्रंथ 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा मिलता है, "दक्षिण भारत में प्रचलित जैन परम्परा के अनुसार ब्राह्मी ऋषभदेव की बड़ी पुत्री थी । ऋषभदेव ने ही अठारह प्रकार की लिपियों का प्रचार किया, जिनमें से एक लिपि कन्नड़ हुई । " 3 गुजरात के महाराज सिद्धराज और राजर्षि कुमारपाल के समय में आचार्य हेमचन्द्र का नाम अत्यधिक प्रसिद्ध था । उन्होंने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन" की रचना की तो 'त्रिषष्ठिशलाका महापुरुषचरित' की भी । वे अपने समय के प्रसिद्ध भाषाशास्त्री और भारतीय संस्कृति तथा साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे । उन्होंने ब्राह्मी लिपि के सन्दर्भ में अपने विचार अभिव्यक्त किये हैं । उनका कथन है कि ऋषभदेव ने अठारह प्रकार की लिपियाँ ब्राह्मी को सिखाई थीं । उन्होंने लिखा है- " अष्टादशलिपि ब्राह्मचा अपसव्येन पाणिना । दर्शयामास सव्येन सुन्दर्या गणितं पुनः ॥” ११४ अर्थ-तीर्थंकर ऋषभदेव ने ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह लिपियों की और सुन्दरी को बायें हाथ से गणित की शिक्षा दी । जैनों में 'शत्रुञ्जय काव्य' का माहात्म्य बहुत अधिक है । डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने संस्कृत काव्य के विकास में 'शत्रुञ्जयकाव्य' का योगदान स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। उसमें एक स्थान पर लिखा है " अष्टादश लिपोर्नाथो, दर्शयामास पाणिना । अपसव्येन स ब्राह्मचा ज्योतिरूपा जगद्धिता ॥ ५ Jain Education International शत्रुञ्जयकाव्य ३।१३१ १. समवायांगसूत्र - अध्याय १८. २. तिलोयपण्णत्ति ४/२२६७. ३. संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ ४४. ४. आचार्य हेमचन्द्र, विषष्टिशलाका पुरुष चरित, १ / २ / ९६३. ५. 'संस्कृत काव्य के विकास में जैनकवियों का योगदान', पृष्ठ ५६१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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