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________________ इसका अर्थ है कि नाथ-वृषभनाथ ने दाहिने हाथ से ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान कराया। इसी सन्दर्भ में 'पण्णवणासुत्त' का एक उद्धरण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। उसमें लिखा है--"से किं तं भासारिया । भासारिया जेणं अद्धमागहाए भासाए भासंति । जत्थ वि य णं बंभी लिवि पवत्तइ ।।"१ अर्थात् भाषा के अनुसार आर्य लोग वे हैं, जो अर्धमागधी भाषा में वार्तालाप करते हैं, लिखते-पढ़ते हैं और जिनमें ब्राह्मी लिपि का व्यवहार होता है। अर्द्धमागधी एक प्राकृत भाषा थी, जिसमें भारत की अठारह भाषाओं का सम्मिश्रण था। प्रसिद्ध आचार्य श्रुतसागर सूरि ने 'तत्त्वार्थ वृत्ति' में लिखा है-"सर्वार्ध मागधीया भाषा भवति । कोऽर्थ : ? अर्द्ध भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं अर्द्ध च सर्वभाषात्मकम् ।” २ अर्थात् अर्द्धमागधी वह है, जिसमें आधे शब्द मगधदेश की भाषा के और आधे शब्द भारत की सब भाषाओं के हों। सातवीं शताब्दी के समर्थ चूर्णिकार गणि जिनदासमहत्तर ने अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में लिखा है--"मगहद्ध विसयभासानिबद्धं अट्ठारसदेसी भासाणियतं अद्धमागहं ।'3 इसका अर्थ है कि अर्द्धमागधी वह है जिसका अर्द्धभाग मागधी का और अर्द्धभाग अठारह देसी भाषाओं से बना हो। जैसे-यदि उसमें सौ शब्द मान लें तो पचास मागधी के और पचास अठारह देसी भाषाओं के होने चाहिये । ऐसी ही भाषा में भगवान् महावीर अपना उपदेश देते थे। यह ही कारण था कि प्रत्येक व्यक्ति उसे समझ जाता था। समवायांगसुत्त में लिखा है_ "भगवं च ण अद्धमागही ए भासाए धम्म आइक्खइ । सा वि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसि आरियं-अणारियाणं दुप्पय-चौप्प यमियपसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणो हियसिवसुहदाय भासत्ताए परिणमइ ।"४ अर्थात् भगवान् यह धर्म (जैन धर्म) अर्द्धमागधी भाषा में प्रचारित करते हैं और यह अर्द्धमागधी भाषा जब बोली जाती है तब आर्य और अनार्य, द्विपाद और चतुष्पाद, वन्य और ग्राम्य, पश-पक्षी और सरीसप (रिंगणशील सर्प आदि) सब प्रकार के कीटादि इसी में बोलते हैं, और यह सब का हित करती है, उनका कल्याण करती है और उन्हें सुख देती है। अब प्रश्न यह है कि वे १८ भाषाएँ-लिपियाँ कौन-कौन-सी थीं ? अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग पंचम्, पृष्ठ १२८४ पर, कल्पसूत्र, भगवती सूत्र और आवश्यकचूणि आदि ग्रन्थों के साहाय्य से ब्राह्मी और अन्य लिपियों का 'लिपि-भेद' के नाम से विवेचन हुआ है । वहाँ १८ लिपियों का नामोल्लेख है१. पण्णवणासुत्त-५६. २. षट्प्राभृतटीका, पृष्ठ ६६. ३. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्वपीठिका, गणेशवर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी, पृष्ठ २६८.. ४. समवायांगसुत्त--६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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