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अष्टादश प्रकारा ब्राह्मी लिपि :
विश्व नाना रूपात्मक है। उसमें अनेक धर्म हैं, अनेक रूप हैं और अनेक भाषाएँ है । आज से नहीं अनादि काल से ऐसा चला आ रहा है। अर्थर्ववेद में एक स्थान पर लिखा मिलता है--
"जनं बिभ्रती बहधा विवाचसं ।
नाना धर्माणं पृथिवी यथैकसम् ॥"५ अर्थ---पृथ्वो बहुत-से जनों को धारण करती है, जो पृथक धर्मों के मानने वाले और भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले हैं।
अथर्ववेद से पूर्व, ऋषभदेव के समय में भी 'एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः २ और 'अनेक भाषा जगती प्रसिद्धा.' 3 से अनेक भाषाओं के अस्तित्व का प्रतिभास होता है । भाषा और लिपि का गहरा सम्बन्ध है। यदि भाषाएँ अनेक थीं तो लिपियाँ भी अनेक थीं। एकाधिक जैन ग्रन्थों में अनेक लिपियों के अस्तित्त्व का उल्लेख मिलता है। भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियो का बोध कराया था। पुत्री ब्राह्मी को सिखाये जाने के कारण वे सब लिपियाँ ब्राह्मी संज्ञा से अभिहित हुईं। भगवती सूत्र में एक स्थान पर लिखा है-“लिपि: पुस्तकाऽऽदावक्षरविन्यासः सा चाऽष्टादशप्रकाराऽपि श्री मन्नाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिका या दशिता, ततो ब्राह्मीत्यमिधीयते ।"४ इसका अर्थ है कि नाभेयजिन-ऋषभदेव ने अठारह प्रकार की लिपियाँ अपनी ब्राह्मी नाम की पुत्री को सिखाईं, अतः उन्हें ब्राह्मी अभिधान से पुकारा गया। जैन-ग्रन्थ 'समवायांग सूत्र' और 'पण्णवणासूत्र' में भी अठारह लिपियों का उल्लेख मिलता है। वहाँ यह भी लिखा है कि ये लिपियाँ ऋषभदेव ने ब्राह्मी को
१. अथर्ववेद, १२/१/४५. मिलाइए-'पाणिनिकालीन भारतवर्ष', पृष्ठ ४२६. २. "एकतयोऽपि च सर्वनृभाषा:
सोऽन्तरनेष्ट बहूश्च कुभाषाः । अप्रतिमत्तिमपास्य च तत्त्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना।"
महापुराण, २३/७०. ३. “अनेक भाषा जगती प्रसिद्धाः
परन्तु दिव्यो ध्वनिरर्हतो वै। एवं निरूप्यात्मनि तत्त्वबुद्धि अभ्यर्चयामो जिन दिव्यवादम् ।।"
प्रतिष्ठापाठ--५४२. ४. भगवतीसूव १, श० १, उ.
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