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पड़ी थी। ऋषभदेव का कथन था कि अन्तः साधने से अन्तः सधता है, फिर बाह्य तो स्वतः छूट जाता है। छूटना ही मुख्य है, छोड़ना मुख्य नहीं है। बाह्य छोड़ने से बाह्य छूट जायेगा, किन्तु अन्तः सधेगा ही, निश्चित नहीं है। पुस्तक बाह्य परिग्रह है, किन्तु उसके न रखने से कोई अपरिग्रही हो जायेगा, कहना गलत है। परिग्रह और अपरिग्रह चित्त की दशा है, पुस्तक की नहीं। ऋषभदेव के इस जीवन दर्शन को लोग भूल गये। केवल बाह्य को छोड़ने वाली बात रह गई और उसमें पुस्तक भी आ गई। मान्यता जो कुछ बनी-बिगड़ी हो, गलत फहमी जी चाहे वैसे आई हो, किन्तु पुस्तक रखना पाप माना जाता था। शायद इसी कारण उसका लेखन भी नहीं होता था।
- जैनाचार्यों ने पुस्तक को श्रुत कहा है । श्रुत शब्द 'श्रुश्रवणे' से बना। उसका अर्थ है-सुना हुआ। वैदिक परम्परा में केवल वेदों की ऋचाओं को श्रुति कहा गया, अन्य को नहीं। किन्तु, जैन परम्परा सभी शास्त्रों को श्रुत संज्ञा से अभिहित करती है। वहाँ श्रुत एक ज्ञान है। ज्ञान रूप श्रुत को ‘भाव श्रुत' कहा गया है। वह आत्मगुण होने के कारण सदैव अमूर्त होता है। उसे प्रकाशित करने का निमित्त कारण शब्द है, अतः वह भी निमित्त-नैमित्तिक के कथंचिद् अभेद की अपेक्षा से श्रुत कहलाता है । शब्द मूर्त होता है, अतः उसे द्रव्यश्रुत कहा गया है। इस भाँति श्रुत के दो भेद हुए-भावश्रुत और द्रव्यश्रुत । भावश्रुत के जितने भी निमित्त हैं, चाहे वे शब्द हों, चाहे लिपि हो, चाहे संकेत हो, वाहे चेष्टा हो-सभी कुछ द्रव्य श्रुत कहलाते हैं। शब्दरूप होने के कारण पुस्तक द्रव्यश्रुत है।
इस संदर्भ को लेकर जैनग्रंथों में एक मनोरञ्जक चर्चा का उल्लेख मिलता है । एक प्रश्न है कि संकेत और चेष्टाएँ, जो सुनाई नहीं देतीं, श्रुत हैं या नहीं ? भाष्यकार जिनदासगणि क्षमाश्रमण ने, वृतिकार आचार्य हरिभद्र ने 'आवश्यक वृत्ति' में तथा आचार्य मलयगिरि ने 'नन्दिवृत्ति' में श्रुत को यौगिक शब्द मानते हुए स्पष्ट निर्देश किया है कि-श्रुत वही है, जो सुनने योग्य हो, अन्य नहीं । जो चेष्टाएँ सुनाई न देत. हों, उन्हें श्रुत नहीं कहना चाहिए। किन्तु, आचार्य भट्टाकलंक ने 'तत्त्वार्थ राजवात्तिक' में लिखा है--'श्रुत शब्दोऽयं रूढ शब्द: इति सर्वमतिपूर्वस्य श्रुतत्त्वसिद्धिर्भवति।" अर्थात् श्रुत शब्द रूढ़ है। श्रुत ज्ञान में किसी भी प्रकार का मतिज्ञान कारण हो सकता है। इसके अनुसार केवल सुना गया ही नहीं, अपितु देखा गया भी संकेत अथवा चेष्टा श्रुतज्ञान को कोटि में आते हैं।' १. देखिए इसी ग्रन्थ का प्रथम अध्याय-'लिपिः व्युत्पत्ति और विश्लेषण'.
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