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इनमें से प्रथम के सम्बन्ध में श्री ओझाजी का अभिमत है कि-"यह लेखक की असावधानी के कारण हुआ ज्ञात होता है। यह भी सम्भव है कि देश-भेद के कारण ऐसा हो गया हो। छठी सदी के यशोधर्मन के लेख में तो ''उ' नागरी के 'उ'-सा मिलता है, किन्तु इसी सदी के 'गारुलिक सिंहादित्य' के दान पत्र में ठीक उसके उलटा । बंगला का 'च' भी पहले उलटा लिखा जाता था।"१ अतः कतिपय उलटे अक्षरों के आधार पर पूरी लिपि की गति को उलटी मान लेना सुसंगत नहीं है। आन्ध्रवंश के राजा शातकर्णी के दो सिक्कों के लेख भी ठप्पे की गड़बड़ के कारण ही उलटे हो गये हैं। खरोष्ठी में भी ऐसा हुआ है। पार्थिअन सम्राट अब्दगसिस के एक सिक्के का खरोष्ठी का लेख उलट गया है, किन्तु इस आधार पर खरोष्ठी को बायें से दायें किसी ने नहीं कहा। कहा भी नहीं जा सकता।
बूलर के बाद मद्रास में य गुड़ी स्थान पर अशोक का एक लघु शिलालेख प्राप्त हुआ है। उसकी एक पंक्ति दायें से बायें, तो दूसरी पंक्ति बायें से दायें लिखी मिलती है। इससे प्रतीत होता है कि लेखक एक नये प्रयोग की दृष्टि से अथवा खेलवाड़ की हौंस में ऐसा करता गया। इसलिए यह भी ब्राह्मी के दायें से बायें का कोई आधार नहीं बन सकता। वास्तविकता यह है कि अधिकांश लेख बायें से दायें मिलते हैं तो कतिपय के कारण यह क्यों माना जाये कि ब्राह्मी दायें से बायें लिखी जाती थी। इसी कारण निश्चिन्त होकर कहा जा सकता है कि सामी और आरमइक की मूलगति का ब्राह्मी से मेल नहीं खाता। गतियाँ भिन्न हैं । अतः एक दूसरे से प्रादुर्भूत हुई, इस सिद्धान्त को सकारा नहीं जा सकता। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. हुल्श और पलीट ने डॉ. बलर के तर्कों को अर्थहीन मानते हुए ब्राह्मी को विशुद्ध भारतीय लिपि कहा है। __ प्रश्न यह है कि जब जैन साहित्य ब्राह्मी लिपि को सम्राट ऋषभदेव से उत्पन्न हुआ मानता है और ऋषभदेव पूर्ववैदिक थे, तो उसकी (जैन साहित्य की) लिखित सामग्री अधिक प्राचीन क्यों नहीं है ? इसका कारण था कि धन, हाथी, घोड़ा, जमीन आदि की भाँति ही पुस्तक भी परिग्रह मानी जाती थी। कोई भी वीतरागी श्रमण अन्य वस्तुओं की भाँति उसे भी अपने पास नहीं रख सकता था। यदि रखता तो प्रायश्चित का भागी होता। जैन आचार्यों ने पुस्तक को एक चक्र माना, जिसमें फंसने पर हिंसा होती और परिग्रह भी बढ़ता, ऐसी मान्यता पनपने लगी थी। बाह्य छोड़ने से अन्तः सधता है, बात चल १. भाषाविज्ञानकोश, पृष्ठ ४१५-४२२. २. देखिए वही, पृष्ठ वही.
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