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मुख्य आधार था कि ईसा से आठ सौ वर्ष पूर्व से छः सौ वर्ष पूर्व तक सेमेटिक (फोनेशिया) और आरमेनियन (दक्षिण अरबी) व्यापारियों ने सर्वप्रथम भारत से सम्पर्क स्थापित कर अक्षरों का यहाँ समावेश किया। सेमेटिक
और आरमेनियन दोनों पश्चिमी एशिया से सम्बन्धित हैं। डॉ. बूलर ने सेमेटिक से और डॉ. डिरिजर ने आरमइक से ब्राह्मी की उत्पत्ति स्वीकार की है। दोनों में कोई भेद नहीं है। सेमेटिक में २२ (बाईस) व्यञ्जन हैं और आरमइक में अट्ठाईस । दोनों में अक्षरों का प्रारम्भ व्यञ्जन से होता है। दीर्घस्वर का नितान्त अभाव है। ब्राह्मी अक्षरों का प्रारम्भ स्वर से होता है, व्यञ्जन से नहीं। इसके अतिरिक्त व्यापार वाली बात और इन लोगों द्वारा भारत में अक्षर-प्रचलन की बात हास्यास्पद और अप्रामाणिक है। क्या यह नहीं हो सकता कि उन्होंने यहाँ आकर अक्षर ज्ञान किया हो। व्यापार दोनों तरफ का आदान-प्रदान है, अत: यह भी हो सकता है कि कुछ उन्होंने हमसे लिया हो और कुछ हमने उनसे लिया हो। किन्तू, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ब्राह्मी आरमइक अथवा सेमेटिक से निकली । शायद आदान-प्रदान के कारण ही दोनों में कुछ समानता है और ऐसी समानता अंग्रेजी और ब्राह्मी के कतिपय अक्षरों में भी पाई जाती है। यत्किञ्चित समानता के आधार पर सिद्धान्त नहीं बनाये जा सकते।
डॉ. राजबली पाण्डेय की मान्यता है कि फोनेशीय लोग मूलतः भारतवासी थे। वे जब बाहर गये, तो यहाँ की लिपि साथ ले गये। वहाँ सामी लोगों के बीच रहते हुए उन्होंने एक ओर उत्तरी सामी और आरमइक को प्रभावित किया, तो दूसरी ओर इनकी अपनी लिपि में भी अन्तर आया। ऐसी बात सम्भव तो है किन्तु अभी उसे सुदढ़ प्रमाणों से प्रमाणित होना अवशिष्ट है। ____ दायें से बायें लिखने की बात जहाँ तक है, वह केवल पश्चिमी एशिया की लिपियों में थी। जब ईरानी शासकों का शासन काबुल तक फैला, तो दायें से बायें वाली बात भी आई। उससे खरोष्ठी प्रभावित हुई, ब्राह्मी नहीं। यह विचार कि ब्राह्मी पहले दायें से बायें लिखी जाती थी, भ्रमात्मक और अतथ्यात्मक है । एक शिलालेख और एक सिक्के के आधार पर डॉ. बलर ने इतना बड़ा निर्णय ले डाला, आश्चर्यजनक है । अशोक के औगढ़ और धौली के लेखों में 'ओ' तथा देहली के सिवालिक स्तम्भों में 'ध' उलटा है । कनिंघम को मध्यप्रदेश में एरण (जबलपुर) नाम के स्थान पर एक सिक्का मिला था, जिसका मुद्रालेख ब्राह्मी में होते हुए भी दायें से बायें लिखा गया है। डॉ. बूलर ने इस सिक्के को भी अपनी मान्यता के समर्थन में प्रस्तुत किया। 1. The Alphabet, PP 328-334. 2. Indian Palaeography by Dr. R. B. Pandey, P.47. ३. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ ७२-७३. ४. डॉ. वासुदेव उपाध्याय, 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन', पृष्ठ २४६.
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