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________________ है कि बौद्ध आगमों की रचना से भी पूर्व लोग लेखन-कला से सुपरिचित थे और उनमें लेखन का पर्याप्त प्रचार था।' बौद्ध आगमों में एक कथा है कि एक बार बौद्ध भिक्षु भगवान् बुद्ध के पास यह पूछने गये कि हम किस भाषा में लिखें, तो उन्होंने स्पष्ट ही छन्दस् (वेदभाषा) में न लिखने का उपदेश दिया। इसका अर्थ है कि छन्दस् में पहले से लिखने की परम्परा थी। विनयपिटक (४०० ई. पूर्व के भी पूर्व-ओल्डनवर्ग के अनुसार) में लिखा है कि बुद्ध से पूर्व बाँस या लकड़ी को पट्टी पर शिष्यों के पालनार्थ नियम खोद कर देने की प्रथा थी। इससे प्रमाणित है कि बुद्ध युग से पूर्व लेखन कला का यहाँ प्रचार था। जातकों में अनेक नियमों को स्वर्णपत्रों पर खुदवाने, व्यक्तिगत तथा सरकारी पत्र लिखने एवं ऋण लेने पर ऋण-पर्ण लिखे जाने के रूप में लेखनकला के उल्लेख हैं। ओझाजी के अनुसार जातकों में ईसवी पूर्व छठी सदी या उसके पूर्व के समाज का चित्र है। बौद्ध ग्रन्थ सुत्तन्त (सूत्रान्त) में एक 'अक्खरिका' का उल्लेख है, जो आकाश में या पीठ पर अक्षर लिखकर खेला जाता था। रायस डेविड्स जातकों का समय ई. पूर्व ४५० और डॉ. राजबली पाण्डेय छठी सदी ईसवी पूर्व से भी पूर्व का मानते हैं।६।। जहाँ तक जैन ग्रंथों का सम्बन्ध है, उनमें ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति आदितीर्थंकर ऋषभदेव और उनकी पुत्री ब्राह्मी से सम्बन्धित बताई गई है। ऋषभदेव श्रमण संस्कृति के आदि प्रतिष्ठापक थे। ऋग्वेद के एक सूक्त १०/१३६ में लिखा है कि ऋषभदेव ने वातरशना श्रमण मुनियों के धर्म को प्रकट करने की इच्छा से अवतार लिया था। ऋग्वेद और अथर्ववेद में वातरशना, एिशंगा, वसतेमला और प्रकीर्णकेशी श्रमण मुनियों का एकाधिक स्थलों पर उल्लेख हुआ है । गीता और श्रीमद्भागवत् में तो अनेकानेक प्रसंगों में उनके प्रशंसा-मूलक कथन हैं।' तात्पर्य है कि वेदों का जब निर्माण हुआ, जन-जन के मध्य ऋषभदेव पूज्य भाव को प्राप्त थे । इसका अर्थ यह भी है कि ब्राह्मी लिपि के जन्मदाता भगवान् ऋषभदेव वेद-युग से पूर्व-वर्ती हैं। डॉ. पी. सी. राय चौधरी ने उन्हें पाषाण युग के अन्त और कृषियुग के १. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ १६. २. चुल्लवग, ५/३३/१ 3. Budaist India, Page 108. 4. Indian Palaeography by Dr. R.B. Pandey, P. 6-7. ५. सुत्तन्त-11. ६. हिन्दी भाषा, डा. भोलानाथ तिवारी, पृष्ठ ६८०.) ७. डॉ० मंगलदेव शास्त्री, भारतीय संस्कृति का विकास, औपनिषद् धारा, पृष्ठ १८०. ८. बृहद् विवेचन के लिए देखिए मेरा ग्रन्थ-भरत और भारत, पृष्ठ, २८-३४. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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