SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कि सिन्धुघाटी में बैठी और खड़ी मूत्तियाँ कायोत्सर्गमुद्रा में हैं। उनका कायोत्सर्ग वाला ढंग विशेष कर जैनमूत्तियों में ही पाया जाता है। ईजिप्शियन और ग्रीक मूर्तियों में भी यह मुद्रा मिलती है, किन्तु वह वैराग्यभाव नहीं है, जो मोहनजो-दरो की मूत्तियों में उपलब्ध होता है। यहाँ यह कहना अपेक्षित है कि सिन्धुघाटी के वासी हर दृष्टि से इतने समुन्नत थे, तो लिपि के सन्दर्भ में कोरे रहे हों, माना नहीं जा सकता। मेरी दृष्टि में, उससे केवल भारत ही नहीं, अन्य अनेक देश भी अनुवर्ती बने हों, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। ___ जहाँ तक सिन्धुघाटी लिपि और ब्राह्मीलिपि के बीच की कड़ियों का सम्बन्ध है, यह कथन सत्य प्रतीत होता है कि-"यह बहुत सम्भव है कि आर्द्र जलवायु तथा नदियों की बाढ़ आदि के कारण पुरानी लिखित सामग्री नष्ट हो गई हो और विदेशी आक्रमण तथा आपसी संघर्षों ने बहुत कुछ महत्वपूर्ण ध्वंस कर दिया हो।"१ इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि सहस्राधिक वर्ष के सतत विदेशी शासन ने हमारी अपनी संस्कृति और सभ्यता के अन्वेषण-उद्घाटन में कोई रुचि नहीं दिखाई। इसके विपरीत, उसके विलुप्त रखने में ही अपना कल्याणसमझा। वैसे, विलुप्त रहने की कथा बड़ी प्राचीन है। महाभारत के शांतिपर्व में एक श्लोक है-- __ "वर्णाश्चत्वार एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती। विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभादज्ञानतां गताः ॥"२ । अर्थ--पूर्व में (पहले) ब्रह्मा के द्वारा चार वर्णों की स्थापना की गई थी और जिनके लिए ब्राह्मी लिपि तथा सरस्वती विद्या की स्थापना की गई थी, वे लोभ के कारण अज्ञानता को प्राप्त हो गए। यह है वह कड़ी जो सिन्धुघाटी और ब्राह्मी लिपि के बीच सेतुबन्ध थी। ब्राह्मी लिपि को एक भारतीय लिपि घोषित करने में साहित्यिक आधार भी नकारे नहीं जा सकते। उनका अपना मूल्य है। उनसे होकर सत्य पकड़ा जा सकता है, इसमें कोई संशय नहीं है। जैन और बौद्ध साहित्य में प्रौढ़ ब्राह्मी के उद्धरण हैं और उसके जन्म तथा विकास की कथा है । डॉ. डिरिजर और बूलर आदि भी इस बात को मानते हैं। डॉ. डिरिजर का अभिमत है, “छः सौ ईसवी पूर्व उत्तरी भारत में ऐसी अद्भुत क्रान्ति हुई कि इसने भारतीय इतिहास को अत्यधिक प्रभावित किया। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि अक्षर ज्ञान ने जैन तथा बौद्ध धर्मों के प्रचार एवं प्रसार में विशेष सहायता दी होगी। जहाँ तक बौद्ध धर्म का सम्बन्ध है, यह निर्विवाद है कि इस युग में लिखने की कला का विशेष रूप से प्रचार हुआ।"3 किन्तु, डॉ. बूलर का कथन १. हिन्दी भाषा : उद्गम और विकास, पृष्ठ ५७६ ओर भाषाविज्ञानकोश, पृष्ठ ४१५-२२. २. महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म, १२/१८१/१५. ३. डॉ० डिरिंजर, द अलफावेट, पृष्ठ ३२८-३३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy