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________________ ८९ लिपि पढ़ी ही नहीं जा सकी, तो उसका कोई एक निश्चित रूप मान लेना, न्यायपूर्ण नहीं है । दुनियाँ की प्रत्येक भाषा चित्रलिपि से निकली, ऐसा भाषाविदों का सर्वमान्य मत है । इसका स्पष्ट अर्थ है कि विश्व की सभी भाषाएँ प्रारम्भ में आकृति - मूलक थीं । योगवासिष्ट के एक श्लोक से सिद्ध है कि पहले लिपिकर्म में आकृतियाँ ही अंकित होती थीं- “लिपिकर्माfपताकारा ध्यानासक्तधियश्च ते । अन्तस्थेनैव मनसा चिन्तयामासुरादृताः ॥ १ अर्थ---ध्यानावस्थित होने से वे लिपिकर्म में अंकित आकृतियों से निस्तब्ध होकर आदरपूर्वक अन्तःस्थित मन से चिन्तन करने लगे । ऐसा ही, जैनग्रन्थ 'सहस्रनाम' में, 'लेखर्षभोऽनिलः' सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य श्रुतसागर ने लिखा है -- " पुरा हि अनुमतां दिव्यानां देवानां विग्रहात्मिका रूपवर्णन रचना भित्तिषु लिखित्वेव क्रियते स्मेति लेखः ।"२ इसका अर्थ है कि पहले अपने आराध्य दिव्य देवों की विग्रहात्मक रूपरचना भित्तियों पर की जाती थी, उसे लेख कहते थे । ब्राह्मी लिपि भी चित्रलिपि से विकसित हुई, यह मानना असंगत नहीं है, किन्तु यह भी सच है कि वह चित्रलिपि भारत में मौजूद थी, अतः वह एक भारतीय लिपि थी, उसका निकास किसी अन्य विदेशी लिपि से मानना, भाषाविदों का चित्रलिपि वाला उद्गम स्थल गलत प्रमाणित करना है । और, उसे सही माना जा चुका है । सिन्धुघाटी की सभ्यता विश्व भर में एक समुन्नत सभ्यता थी, इस बात hot इतिहासज्ञों ने एक स्वर से माना है । उसकी प्रत्येक बात समुन्नत थी -- क्या वस्तुकला, क्या शिल्पकला, क्या चित्रकला और क्या मूर्तिकला । सिन्धुघाटी लोग भौतिक रूप से समुन्नत थे तो आध्यात्मिक रूप से भी कम न थे । मोहनजो दरो और हड़प्पा में प्राप्त मूर्तियों की योगमुद्रा और ध्यानस्थ चेष्टा उनके अध्यात्मभाव की प्रतीक है । प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता प्रो. रामप्रसादजी चन्दा का कथन है, "Not only the seated deities Engraved on some of Indus seals are in yoga posture and bear witness to the prevalence of yoga in the Indus valley in that remote age, the standing deities on the seals also show kayotsarga posture of yoga. The kayotsarga posture is peculiarly Jaina."3 इसका अर्थ है १. योगवासिष्ठ, उत्पत्ति०, ८६ / ३७. २. जिनसहस्रनाम, 'लेखर्षभोऽनिलः' की श्रुतसागरीय व्याख्या. 3. Modern Review, August 1932, Page 155 160. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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