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हो गयी। उस समय पृथ्वी की इतनी ही जानकारी थी । सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र धर्म-संगठक के रूपमे ई. पू. २५० में सिंहल पहुंचे। वहां उन्होंने राजा देवप्रियतिष्य से यथार्थ ही कहा था- " समस्त जम्बुद्वीप पीली पोशाक में उद्भासित हो उठा है"
बौद्ध परंपरा से ज्ञात होता है कि अशोक अपने जीवन के उत्तरार्ध में बौद्ध धर्म की पृष्ठपोषकता के लिये अत्यंत आग्रही थे । बौद्ध संघ और भिक्षुओं के प्रति उनकी बदान्यता की अधिकता के कारण धीरे-धीरे मगध का राज कोश शून्य होता गया ।
ब्राम्हण सेनापति पुष्यमित्र सुंग ने मगध में मौर्य वंश के अंतिम बौद्ध सम्राट की हत्या स्वच्छ दिवालोक ही में की और मगध सिंहासनासीन हुए । पुष्यमित्र ब्राम्हण धर्म की प्रतिष्ठा और प्रसार के लिए तत्पर थे। उनके प्रतिहिंसापरायण हो बौद्ध दलन नीति अपनाने के कारण अनेक बौद्ध सन्यासियों ने प्राण विसर्जन अथवा अन्यत्र पलायन कर गये । बौद्ध धर्म ने थोड़े ही समय में जो सम्मान और प्रतिष्ठा पायी थी, उसे अक्षुण्ण रख पाने के प्रयास से बौद्ध नेतृवर्ग अस्थिर हो उठे। सम्राट अशोक से लेकर खारवेळ तक दीर्घ दो शताब्दियों की अवधि ब्राम्हण्य और बौद्ध धर्मी के मध्यप्रति द्वंद्विता की रही। बौद्ध धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के हेतु नूतन नीतियों के प्रणयन के लिये उसके नेतृवर्ग चिंतित हुए। अंत में ई. पू. प्रथम शताव्दी में सर्वस्तिवादी बौध्दों के द्वारा प्रज्ञा पारमिता साहित्य और दर्शन की पहली नींव कलिंग की धरती पर ही पड़ी थी । इसो साहित्य की प्राचीनतम ग्रंथ रचना है अष्टसहस्रिका प्रज्ञापारमिता, जिसकी रचना कलिङ्ग में ही हुई थी । इसीके द्वारा केवल भारत ही में नहीं वरन सारे एसिया महादेश में एक नूतन सांस्कृतिक युग का प्रारम्भ हुआ। डॉ. साहू का कहना है- बौध्द जगत में जो अनेक समय तक असंभब था वही संभव हो पाया खारवेळ के उदारनीति - शासति कलिंग में । "
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