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महिषी सिंहपथ राणी के अनुरोध से उन्होंने विभिन्न स्थानों से आगत श्रमण, यति, तापस, ऋषि और संघायनों के आश्रय के लिये अर्हतों के गिरिगृह के समीप एक विशाल विश्रामागार का भी निर्माण किया था। दूरदूर से आनीत पंचात्रिश लक्ष प्रस्तर फलकों से उस अनुलनीय सुरम्य प्रासाद का निर्माण हुआ था। उसके फर्श को पाटल रंग से रंगाया गया था। उसके वैदुर्य खचित खम्भे थे। प्रासाद के निर्माण के लिये एक लाख पांच सहस्र मुद्राएँ व्ययित हुई थी, यह सूचना हमें अभिलेख ही से प्राप्त हो जाती है। खारवेळ की प्रथम महिषी, राजकमारों और विभिन्न पदाधिकारियों की जैन धर्म के प्रति प्रगाढ अनुरक्ति और पृष्ठपोषकता भी उदयगिरि-खण्डगिरि में उत्कीर्णित विभिन्न क्षुद्राभिलेखों में है, जिसका पाठोध्दार और व्याख्या इस पुस्तक में परिशिष्ट के रूपमें हैं।
__ भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक विकाश क्षेत्रमें भी खारवेळ की उदार धर्मनीति की भूमिका गुरूत्वपूर्ण है। ब्राम्हण्य धर्म के प्रति उनकी पृष्ठपोषकता का उदाहरण भी है। हाथीगुम्फा अभिलेख की पं. ९ के अनुसार मगध विजय के पश्चात विजयलब्ध धन को ब्राम्हण्य धर्मी ऋषि तापसों के लिये भी प्रबंध था। वस्तुत: वह विशामागार सर्वधर्म समन्वय का प्रतीक था। खारवेळ का वौद्ध धर्म के प्रति भी अनुराग था। क्यों कि वौद्धों में जो धार्मिक विप्लव का सूत्रपात हुआ था, खारवेळ के समसामयिक कलिंग की भूमि पर ही उसे सफल परिणाम प्राप्त हुआ था।
कलिंग युद्ध की भाँति एक महायुद्ध के परिणाम स्वरूप अशोक जैसे सुविख्यात सम्राट्ने बौद्ध धर्म को अपनाया था और चण्डाशोक से धर्माशोक बने। यह कलिंग भूमि पर बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का प्रमाण है। अशोक के बौद्ध धर्म-दीक्षित होने के कुछ ही वर्षों में वौद्ध धर्म की लोकप्रियता की गति ऐसी प्रखर हुई कि कुछेक वषों में कश्मीर से सिंहल और ग्रीस से ब्रम्हदेश तक परिव्याप्त ।
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