SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शीतलनाथ की प्रतिमूर्ति थी, पर डॉ.नवीन कुमार साहू के यथार्थ मतानुसार वह ऋषभनाथ की प्रतिमूर्ति थी। कालिङ्गजिन नाम करण की दृष्टि से डॉ. यज्ञ कुमार साहु का कहना है कि कालिंगजिन कलिंग के आराध्य देव थे, ई.पू. चौथीसदी में जैनधर्म कलिंग का राष्ट्रधर्म था। खारवेळ के द्वारा राजत्व के एकादशवें वर्ष में पिधुंड का पुनरुद्धार कार्य और द्वादशवें वर्ष में मगध पर विजय पाकर कालिङ्गजिन को लौटा कर पिथुड में फिरसे प्रतिष्ठित करना ऐतिहासिक विचार से तात्पर्यपूर्ण है। इससे यही प्रमाणित होता है कि खारवेळ ने मगध अभियान के पूर्व ही कालिंग-जिन को लाकर उनके पूर्व अधिष्ठान पिधुंड में फिर से प्रतिष्ठित करने की योजना बनायी थी। अत: द्वादश वर्ष का वह युद्धाभियान भी जैनधर्म की सुरक्षा और संस्थापना के उद्देश्य से हुआ था, यह नि:संदेह कहा जा सकता है। पिथुड में कालिंगजिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा के दृश्य भी मंचपुरी गुम्फा के निचले भाग पर उत्कीर्णित होकर है। दुःख की बात है कि वह मूर्ति के अधिकांश भाग टूट चुके हैं। केवल मात्र मूर्ति के सम्मुख दण्डायमान राजपुरोहित ही अर्चना की मुद्रा में स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। पुरोहित के पीछे स्वयं खारवेळ, राजमहिषी. और अंत में राजकुमार खड़े हुए हाथ जोड़ कर भक्ति और सम्मान प्रदर्शित करते दिखाई देते हैं। (चि.क्र.पु-५) खारवेळ हाथीगुम्फा अभिलेख की चतुर्दश पंक्ति में जैन धर्म के सर्वश्रेष्ठ पृष्ठपोषक के रूपमें वर्णित हुए हैं। इसमें यह विवरण भी है कि जिस कुमारी पर्वत पर भगवान महावीर ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था वहां पूजानुरत उपासक खारवेळ ने अपने राजत्व के त्रयोदश वर्ष में श्वेतांबर जैनियों को और यापनीय नामक दिगंबर अर्हतों को राजपृष्ठपोषकता अर्पणपूर्वक उनके आवास के लिये अनेक गुम्फाओं की खुदवाई की थी। प्राचीन काल में यापनीयक दिगंबर अर्हत उलग्न रहते थे। मस्तक को मयूर पंख से सजाते थे और आहार के लिये कुछेक रीति-नीतियों का पालन करते थे। द्वितीय 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003640
Book TitleKharvel
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadanand Agarwal, Shrinivas Udagata
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year1993
Total Pages136
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy