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________________ कल्पवृक्ष की एक पल्लव-शोभित शाखा सम्मान सहित अपनी राजधानी को लाये थे। वह कल्पवृक्ष आदिजिन ऋषभनाथ का प्रतीक था। उसी अवसर पर उन्होंने कलिंग नगरी में महाविजय प्रासाद का निर्माण किया था। खारवेळ के पूर्व ही कलिंग का पिथुण्ड नामक एक स्थानने जैनक्षेत्र के रूपमें प्रसिध्दि पायी थी। पुनश्च यह भी हाथीगुम्फा शिलालेख में उल्लिखित है कि यह स्थान कलिंग के राजाओं का एक प्रमुख अधिष्ठान था। उत्तराध्ययन सूत्र से ज्ञात होता है कि पिहण्ड [अभिलेख का पिथुड:पिथुण्ड] कलिंग का एक प्रख्यात बंदरगाह था; तथा महावीर के समय इसे एक प्रसिद्ध जैन क्षेत्र माना जाता था। किसी कारणवशः यह क्षेत्र परवर्ती कालमें परित्यक्त होगया। हाथीगुम्फा अभिलेख में यह विवरण है कि खारवेल ने पिथुण्ड का पुनरूद्धार के लिये गर्दभ-योजित लांगल का उपयोग किया था। बैल या सांड़के बदले गदहे का उपयोग होना धार्मिक दृष्टि से तात्पर्यपूर्ण है। क्यों कि बैल या साँड़ आदि जिन-ऋषभनाथ के लांछन माने जाते हैं। लगता है पिथुण्ड आदिजिन का पवित्र पीठ था अत: खारवेळ ने उनके लांछन स्वरूप बैल या साँढों को उपयोग में न लाकर गदहे से काम चलाया था। पिथुण्ड नगरी का पुनरूद्धार कार्य एक ओर चलता रहा था तब दूसरी ओर उत्तरापथ के लिये अभियान की तैयारियां भी होती रही थी। खारवेळ ने अपने राजत्व के बारहवें वर्ष में मगध के राजा वृहस्पति मित्र को परास्त किया और कालिङ्ग- जिन मूर्ति लौटा लाए। हाथीगुम्फा शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि खारवेळ के तीनसौ वर्ष पूर्व मगध के राजा महापद्म नंद ने कालिङ्ग- जिन मूर्ति का अपहरण कर जिस तरह कलिङ्ग के धर्मक्षेत्र पर आघात किया था, यह एक तरह से उसी का प्रतिशोध था जिससे कलिंग के गौरव और मान सम्मान की रक्षा करके खारवेळ चिर स्मरणीय हुए हैं। डॉ. काशीप्रसाद जयस्वाल और राखाल दास बेनर्जी के अनुसार कालिङ्ग जिन मूर्ति दशम तीर्थङ्कर ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003640
Book TitleKharvel
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadanand Agarwal, Shrinivas Udagata
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year1993
Total Pages136
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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