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________________ अपने द्वारा प्रवर्तित नूतन पंचयाम जैन धर्म का प्रचार किया था। जैन ग्रंथों के इन संदर्भो को हाथीगुम्फा शिलोलख [पं.१४] के विवरणों के अनुसार भी समर्थन प्राप्त होता है। प्राचीन काल से उदयगिरि खण्डगिरि की प्रसिद्धि कुमारी पर्वत के रूप में थी। जैन धर्म के अंतिम तीर्थकर इसी कुमारी पर्वत पर से कलिंगवासियों को जैनधर्म की विजय वाणी सुनायी थी [सुपवत विजय चके कुमारी पवते]। खारवेळ के समय कलिंग में जिस भांति जैन धर्म का विकास हुआ था उसके पूर्व या परवर्ती काल में वैसा हो नहीं पाया। हाथीगुम्फा अभिलेख से खारवेळ के धार्मिक अवबोध का स्पष्ट चित्र मिलता है। प्रथम पंक्ति ही में अर्हत और सिद्धों के प्रति प्रणत होना ही महत्वपूर्ण है : नमो अरहंतानं [1] णमो सवसिधानं [u] यहां यह भी उल्लेखनीय है कि परवर्ती कालमें जैन दार्शनिक भद्रबाहु के द्वारा रचित “कल्पसूत्र" नामक ग्रंथ के प्रारंभ में भी इसी तरह की अभिवादनात्मक अभिव्यक्ति है: “णमो अरिहंताणम्, णमो सिधाणम् [1]" हाथीगुम्फा अभिलेख में वध्ध मंगल, स्वस्तिक, नंदिपद, और वृक्षचैत्य आदि लांच्छन अंकित हुए हैं, जैन धर्म में ये माने हुए शुभ प्रतीक हैं। पुनश्च अनंतगुम्फा में भी जैन धर्म की सांकेतिक चिन्हों की पूजा हुआ करती थी। गुफा की भीतरी दीवार पर सात सांकेतिक चित्र एक ही पंक्ति में खोदित हुई हैं- मध्य भाग में नंदिपद, तथा उसके दोनों पार्वं में वृक्षचैत्य, श्रीवत्स और स्वस्तिक अंकित हुए हैं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि खारवेळ के युद्धाभियान जैनधर्म की सुरक्षा और संस्थापना के अभिप्राय से हुए थे। राजत्व के आठवें वर्ष में उन्होंने जैन क्षेत्र मथुरा से यवनों को विताडित किया था। मथुरा विजय के पश्चात उन्होंने वहां से ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003640
Book TitleKharvel
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadanand Agarwal, Shrinivas Udagata
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year1993
Total Pages136
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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