________________
से दीक्षित हुए थे। कुम्भकार जातक की वर्णनानुसार करकण्ड, पांचाल में दुम्मुख, गांधार में नग्गजि और विदेह में राजा निमि के समसामयिक थे । जैनग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र में इसका उल्लेख है कि इन्होंने राजाओं में वृषभ और जैन धर्म में दीक्षित होकर सिंहासन का त्याग करके श्रमण के रूप में कालातिपात किया था। इनका राजत्व काल ई. पू. आठवीं सदी होगी, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। क्यों कि पार्श्वनाथ ई.पू. ७१७ में निर्वाण प्राप्त हुए । नगेंद्रनाथ बसु ने जैन ग्रंथ " क्षेत्र समास" के तथ्यों के आधार पर कहा है कि पार्श्वनाथ स्वयं ताम्रलिप्ति और कोपकटक को आकर धर्म का प्रचार किया था । ताम्रलिप्ति को आधुनिक मिदनापुर जिला के तामलुक और कोपकटक को ओडिशा के बालेश्वर जिला के कुपारी के साथ श्री वसु ने परिचिन्हित किया है। करकण्ड अपने वैभव, धर्म- चेतना और सत्ज्ञान के कारण जैनियों के द्वारा राजश्री और बौद्धों के द्वारा पच्छेक-बुद्ध के नामसे अभिहित हुए हैं। खण्डगिरि के सर्पगुम्फा में अनंतलांच्छन देख कर विद्वान इसे पार्श्वनाथ के उद्देश्य से उत्सर्गीकृत बतलाते हैं। स्थूलतः यह कहा जा सकता है कि पार्श्वनाथ कलिंग के धार्मिक जीवन के साथ घनिष्ट रूप से जुड़े हुए थे और राजा करकण्ड के समय से कलिंग में जैन धर्म की सुदृढ़ भित्ति भूमि की प्रतिष्ठा हो चुकी थी ।
करकण्ड के बाद में भी पार्श्वनाथ के द्वारा प्रवर्त्तित चतुर्याम जैन धर्म ने कलिंग को पूर्ण रूपसे प्रभावित कर रखा था। जैन मुनि सरभंग का विहार गोदावरी के तट पर अवस्थित होकर था । सरभंग जातक से प्रतिपादित होता है कि, कलिंग के राजा कालिंग, अस्सक के राजा अट्ठक और विदर्भ के राजा भीमरथ उनके राजकीय शिष्य थे। इन्हीं वर्णनों से महावीर के पूर्ववर्ती काल के कलिंग में जैनधर्म के प्रभावशाली प्रवाह का स्पष्ट प्रमाण मिलता है ।
" आवश्यक सूत्र” तथा आचार्य हरिभद्र कृत टीका और " जैन हरिवंश ” में यह वर्णित हुआ है कि स्वयं महावीर ने कलिंग आकर
Jain Education International
३३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org