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ही उनका सुसज्जित अश्व है तथा अश्व के पास खड़े अनुचरों को भी हाथ जोड कर अभिवादन करते हुए दिखाया गया है। श्रीमती देवला मित्र ने इसे किसी यवन नरपति का आत्म समर्पण का चित्र बताया है। पर हाथीगुम्फा अभिलेख वर्णित वृहस्पति मित्र का आत्म समर्पण की वर्णना के साथ इस चित्र की अधिकतर समानता है। यह सुनिश्चित है कि कलिंग शिल्पी ने किसी ग्रीक राजा की पराजय के चित्र से मगध राज के आत्म समर्पण के चित्र को अधिक गुरूत्वपूर्ण और गौरवमय माना है। चित्रावली के शीषांसमें कलिंग की विजयी सेना का राजधानी को प्रत्यावर्तन के दृश्य अंकित है। लगता है कलिंग के नागरिकों के द्वारा विजयी सम्राट् के स्वागत अभिनंदन के लिये विपुल आयोजन हुआ था। महिलाएं मस्तकों पर पूर्ण कुम्भधारण कर कतारों में खड़ी हैं और एक-एक कर सम्राट् के पद-प्रक्षालन कर रही हैं। खारवेळ के अंतिम [?] युद्धयात्रा से प्रत्यावर्तन के समय कलिंग जनता के द्वारा अभिनंदन के यह दृश्य अत्यंत सुंदर है।
धर्मनीति
खारवेळ मात्र एक योध्दा या राज्यजयी चक्रवर्ती सम्राट नहीं थे। उन्होंने अपनी उदार धर्मनीति और आध्यात्मिकता के लिये भी इतिहास में एक विशेष स्थानाधिकार किया है। खारवेळ का जन्म एक जैन परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज परंपरानुक्रम से जैनी थे। अशोक की भांति खारवेळ ने नये धर्म की दीक्षा नहीं ली थी। वे जन्मतः जैनी थे। अतः जैन धर्म का गौरववर्धन उनके लिये स्वाभाविक कर्तव्य था।
कलिंग का प्रथम ज्ञात संगठित धर्म था जैन धर्म। कलिंग में जैनधर्मावलम्बी राजाओं में संभवतः आद्य राजा थे करकण्ड [करण्ड] । वे त्रयोविंशतम तीर्थन्कर पार्श्वनाथ के द्वारा प्रवर्तित चतुर्याम जैन धर्म
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