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प्रासाद, गोपुर और दुर्गों के प्राचीर ढह गये थे जिससे कलिंग की पर्याप्त हानि हुई थी। अभिषेक के तुरंत बाद प्रथम वर्ष में ही उन्होंने राजधानी कलिंगनगरी के भग्न प्रासाद और प्राचीरों का पुनः निर्माण करवाया एवं राजधानी को सुदृढ तथा सुशोभित किया था। दुर्ग, प्राचीर और अट्टालिकाओं के संस्कार-साधन के साथ साथ उन्होंने प्राचीन जळाशयों का भी जीर्णोध्दार करवाया और उन्हें सुंदर सोपानश्रेणी से सजा कर वात-विध्वंसित उद्यानों को नवीन रूप प्रदान किया था। इस विकास कार्य के लिये पैंतीस लाख मुद्राओं का व्यय हुआ था। तीन सौ वर्ष पूर्व कलिंग में महापद्म नंद ने जो नहर खुदवायी थी, खारवेळ ने अपने शासन के पांचवे वर्ष में उसकी अभिवृद्धि कर जलप्रवाह को कलिंग नगरी तक ले आये। वह जल-प्रवाह कलिंग में कृषि, स्नान, संतरण तथा पानीय के लिये अत्यंत सहायक सिध्द हुआ। राजत्व के छठे वर्ष में उन्होंने राजैश्वर्य का प्रदर्शन करते हुए पौर और जनपदों को निष्कर घोषित किया। संभवतः पट्टमहिषी बजिरघरराणी के गर्भाधान के उपलक्ष्य में वह घोषणा हुई थी, तथा वैदेशिक धन-संपदाओं से राजकोश परिपूर्ण था। अतः उन्नयन कार्योंपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। राजत्व के नौवें वर्ष में खारवेळ ने जैन तीर्थ मथुरा को यवनों की अधीनता से मुक्त किया। तत्पश्चात अड़तीस लाख मुद्राओं के व्यय से विजय स्मारिका के रूप में एक महा--विजय प्रासाद का निर्माण किया
था।
राज्य में सांस्कृतिक विकास के लिये संगीत, नृत्य, उत्सव, समाज [नाटकादि सांस्कृतिक अनुष्ठान] आदि का आयोजन अपरिहार्य माना जाता है। इन कार्यों के लिये राजकीय पृष्ठपोषकता एकांत रूपसे आवश्यक है, ऐसा रामायण में भी कहा गया है
"नाराजके जनपदे प्रहुष्टनटनर्तकाः। उत्सवाश्च समाजाश्च वर्धन्ते राष्ट्रवर्धनाः॥
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