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" तेन धर्मोत्तरश्चार्य कृतो लोको महत्मनो रंजितश्च प्रजाः सर्वास्तेनराजेति शब्द्यते ॥
अर्थात उस महात्माने संपूर्ण जगत में धर्म की प्रधानता की स्थापना करके समस्त प्रजाओं का रंजन किया था अतः वे राजा कहलाते थे।
धर्म की संस्थापना और प्रजानुरंजन, खारवेळ का भी प्रमुख कार्य था, यह हाथीगुंफा शिलालेख से प्रमाणित होता है । खारवेळ का शासन अनेकांशों में मौर्य शासन के अनुरूप था । पर उसकी नीति और लक्ष्य कुछेक मौलिक दृष्टिकोण से प्रभावित थे । कलिंग में मौर्य शासन विजेताओं का शासन था। शासकों की क्षमता का सुदृढीकरण, और जनता का स्वाधीन मनोभाव का दमन उसका उद्देश्य था । उसी लक्ष्य से अशोक ने कलिंग में द्वैत—शासन का प्रवर्तन किया था। वे अपने को जनता के पिता के रूप में घोषित कर उन्होंने धर्म के माध्यम से सब को संयत और नियमानुवर्ती बनाने का प्रयास करते थे, साथ ही कठोर साम्राज्यवादी नीतियों को मान कर जनता की राजनैतिक आकांक्षाओं का हनन करने में भी पीछे नहीं हटते थे। पर खारवेळ के शासन का आदर्श पूर्णतया भिन्न था । वे कलिंग की संतान, कलिंग की राजनैतिक परंपराओं का पोषक तथा कलिंग संस्कृति के पुजारी थे। राज्य के वैभव और गौरव — वर्धन ही उनके शासन का उद्देश्य था । अतः उन्होंने राज क्षमता का दृढीकरण से बढ़ कर उन्होंने कलिंग राज्य को शक्तिशाली तथा समृद्धिशाली बनाने के लिये प्रयास किया था। उनके मुख्यरूप से जैनधर्मी होने के बावजूद उनका अन्य धर्मों के प्रति उदार मनोभाव ने उनके व्यक्तित्व को महिमामण्डित किया है।
खारवेळ के अभिषेक उत्सव के एक वर्ष बाद कलिंग का उपकूलवर्ती क्षेत्र वातविध्वंसित होने के कारण कलिंग नगरी के ऊंचे-ऊंचे
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