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________________ ७४ नंदी शांतरक्षित ने कुमारिल के तर्कों का उत्तर दिया ।' किन्तु शान्तरक्षित के उत्तर सर्वज्ञत्व की सिद्धि में बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकते । बौद्ध दर्शन सर्वज्ञत्व के विरोध में अग्रणी रहा है । उत्तरवर्ती बौद्धों ने सर्वज्ञत्व का जो स्वीकार किया है, वह अस्वीकार और स्वीकार के मध्य झूलता दिखाई देता है । सर्वज्ञत्व की सिद्धि में सर्वाधिक प्रयत्न जैन दार्शनिकों का है। इस प्रयत्न की पृष्ठभूमि में दो हेतु हैं १. सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है। २. मोक्ष के लिए सर्वज्ञत्व अनिवार्य है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता का खण्डन किया, उसका उत्तर आचार्य हरिभद्र ने दिया। कुमारिल के तर्कों का उत्तर समंतभद्र' अकलंक विद्यानन्द प्रभाचन्द' आदि ने दिया है। यदि तर्कजाल को सीमित करना चाहें तो प्रस्तुत आगम का यह सत्र पर्याप्त है-ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञानावरण के क्षीण होने पर सकल ज्ञेय को जानने की उसमें क्षमता है। केवलज्ञान की परिभाषा प्रस्तुत सूत्र के अनुसार जो ज्ञान सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल और सर्व भाव को जानता देखता है वह केवल ज्ञान आचारचूला से फलित होता है-केवलज्ञानी सव जीवों के सब भावों को जानता-देखता है। ज्ञेय-रूप सब भावों की सूची इस प्रकार है-१. आगति, २. गति, ३. स्थिति, ४. च्यवन, ५. उपपात, ६. भुक्त, ७. पीत, ८. कृत, ९. प्रतिसेवित, १० आविष्कर्म --प्रगट में होने वाला कर्म, ११. रहस्य-कर्म, १२. लपित, १३. कथित, १४. मनो-मानसिक ।' षट्खण्डागम में भी इसी प्रकार का सूत्र उपलब्ध है। जो मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्व काल में जानता-देखता है, वह केवलज्ञान है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार नय के आधार पर केवलज्ञान की परिभाषा की है। बहतकल्प भाष्य में केवलज्ञान के पांच लक्षण बतलाए गए हैं१. असहाय-इन्द्रिय मन निरपेक्ष । २. एक-ज्ञान के सभी प्रकारों से विलक्षण । ३. अनिवारित व्यापार-अविरहित उपयोग वाला। ४. अनंत-अनंत ज्ञेय का साक्षात्कार करने वाला। ५. अविकल्पित-विकल्प अथवा विभाग रहित ।" तत्त्वार्थभाष्य में केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है । वह सब भावों का ग्राहक, सम्पूर्ण लोक और अलोक १. तत्त्वसंग्रह, पृ० ८४६ २. शास्त्रवार्तासमुच्चय, पृ० ६२७-६४३ ३. आप्तमीमांसा, कारिका ५ ४. न्यायविनिश्चय, कारिका ३६१, ३६२, ४१०,४१४, ४६५ ५. अष्टसहस्री, पृ० ५० ६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० २५५ ७. (क) नवसुत्ताणि, नंदी, सू० ७१ (ख) वही, सू. ३३१ अह सव्वदवपरिणाम-भाव-विष्णत्ति-कारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ॥ ८. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. ३३ । ९. अंगसुत्ताणि, भा. १, आयारचूला, १५१३९ : से भगवं अरिहं जिणे जाए, केवली सवण्णू सव्वभावदरिसी, सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पज्जाए जाणइ, तं जहा आगति गति ठिति चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आवीकम्म रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे, एवं च ण विहरइ। १०. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. ३४६ : सई भयवं उप्पण्ण णाणदरिसी सदेवासुरमणुसस्स लोगस्स आदि गदि चयणोववादं बंधं मोक्खं इडिढं टिदि नुदि अणुभागं तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्म रहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि। ११. नन्दी चूणि, पृ. २८ १२. द्रष्टव्य-नियमसार गा. १२.१.१५९, पृ. १४६ १३. बृहन्कल्प भाष्य, पीठिका, गा. ३८ : दव्यादि कसिण विसयं केवलमेगं तु केवलन्नाणं । अणिवारियवावारं, अणंतगविकप्पियं नियतं ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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