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प्र० २, सू० ३३, टि० २३
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को जानने वाला है । इससे अतिशायी कोई ज्ञान नहीं है । ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो।'
___ उक्त व्याख्याओं के संदर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित होती है-सर्व द्रव्य का अर्थ है-मर्त और अमर्त सब द्रव्यों को जानने वाला । केवलज्ञान के अतिरिक्त कोई भी ज्ञान अमूर्त का साक्षात्कार अथवा प्रत्यक्ष नहीं कर सकता।
सर्व क्षेत्र का अर्थ है- सम्पूर्ण आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) को साक्षात् जानने वाला ।
सर्व काल का अर्थ है--अनन्त सीमातीत अतीत और भविष्य को जानने वाला। शेष कोई ज्ञान असीम काल को नहीं जान सकता।
सर्व भाव का अर्थ है----गुरुलघु और अगुरुलघु सब पर्यायों को जानने वाला। केवलज्ञान या सर्वज्ञता की इतनी विशाल अवधारणा किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है।
पण्डित सुखलालजी ने 'निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' योग दर्शन के इस सूत्र को सर्वज्ञ-सिद्धि का प्रथम सूत्र माना है । जैन आचार्यों ने भी इस युक्ति का अनुसरण किया है किन्तु सर्वज्ञता की सिद्धि का मूल सूत्र भगवती सूत्र में विद्यमान है। वह प्राचीन है तथा योग दर्शन के सूत्र से सर्वथा भिन्न है । सर्वज्ञता की सिद्धि का हेतु है अनिन्द्रियता । इन्द्रिय ज्ञान स्पष्ट हैं। उसका प्रतिपक्ष अवश्य है । इन्द्रिय ज्ञान का प्रतिपक्ष है अनिन्द्रिय ज्ञान । सर्वज्ञता इन्द्रिय और मन से सर्वथा निरपेक्ष है।
केवलज्ञानी जानता-देखता है-जाणइ पासइ-इन दो पदों का प्रयोग मिलता है। भगवती में केवलज्ञान को साकारउपयोग और केवल दर्शन को अनाकार उपयोग बतलाया गया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के बारे में तीन मत मिलते हैं
१. क्रमवाद २. युगपत्वाद ३. अभेदवाद ।
क्रमवाद आगमानुसारी है। उसके मुख्य प्रवक्ता हैं-जिनभद्रगणि । युगपतवाद के प्रवक्ता हैं-मल्लवादी । अभेदवाद के प्रवक्ता हैं-सिद्धसेन दिवाकर ।
जिनभद्रगणि ने विशेषणवती में तीनों पक्षों की चर्चा की है किन्तु किसी प्रवक्ता का नामोल्लेख नहीं किया। जिनदास महत्तर ने प्रस्तुत सूत्र की चूणि (विक्रम की आठवीं शताब्दी) में विशेषणवती को उद्धृत किया है। उन्होंने किसी वाद के पुरस्कर्ता का उल्लेख नहीं किया।
हरिभद्र सूरि(विक्रम की आठवीं शताब्दी) ने चूणिगत विशेषणवती गाथाओं को उद्धृत किया है और पुरस्कर्ता आचार्यों का नामोल्लेख भी किया है । उनके अनुसार युगपत्वाद के प्रवक्ता है आचार्य सिद्धसेन आदि । क्रमवाद के प्रवक्ता है जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि । अभेदवाद के प्रवक्ता के रूप में वृद्धाचार्य का उल्लेख किया है।
मलयगिरी (विक्रम की बारहवीं शताब्दी) ने हरिभद्र सूरि का ही अनुसरण किया है।'
१. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्, ११३० वृत्ति, पृ. १०६ : सर्वद्रव्येषु
सर्वपर्यायेषु च केवलज्ञानस्य विषयनिबंधो भवति । तद्धि सर्वभावग्राहकं संभिन्नलोकालोकविषयम् । नातः परं ज्ञानमस्ति। न च केवलज्ञानविषयात् किञ्चिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । केवलं परिपूर्ण समग्रमसाधारणं निरपेक्ष विशुद्ध सर्वभावज्ञापकं लोकालोकविषयमनंतपर्यायमित्यर्थः । २. भगवई, ८११७
अणिदिया णं भंते ! जीवा किं णाणी ? जहा सिद्धा। ३. (क) भगवई, १६।१०८
(ख) उवंगसुत्ताणि, खण्ड २, पण्णवणा, २९।१-३ ४. विशेषणवती, गा. १५३, १५४
केयी भणंति जुगवं जाणइ पासति य केवली नियमा। अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुतोवदेसेणं ॥
अण्णे ण चेव वीसुं दंसगमिच्छंति जिणवरिदस्स । जं चिय केवलनाणं तं चिय से दंसणं बेंति । ५. नन्दी चूणि, पृ. २८-३० ६. हरिभद्रीया वृत्ति, पृ. ४० : केचन सिद्धसेनाचार्यादयः
भणति । किम्? 'युगपद्' एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च । कः ? केवली, न त्वन्यः, 'नियमाद्' नियमेन । 'अन्ये' जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकान्तरितं जानाति पश्यति चेत्येवमिच्छन्ति 'श्रुतोपदेशेन' यथाश्रुतागमानुसारेणेत्यर्थः । 'अन्ये तु' वृद्धाचार्याः 'न' व 'विष्वक' पृथक् तद्दर्शनमिच्छति 'जिनवरेन्द्रस्य' केवलिनः इत्यर्थः । कि तहि ? यदेव केवलज्ञानं तदेव 'से' तस्य केवलिनो दर्शनं ब्रुवते, क्षीणावरणस्य
देशज्ञानाभावात्, केवलदर्शनाभावादिति भावना। ७. मलयगिरीया वृत्ति, प. १३४
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