SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्र० २, सू० ३३, टि० २३ जिसमें साफ तौर से यह बतलाया गया है कि ज्ञान का तारतम्य ही सर्वज्ञ के अस्तित्व का बीज है जो ईश्वर में पूर्णरूपेण विकसित है। इस सूत्र के ऊपर के भाष्य में व्यास ने तो मानो सूत्र के विधान का आशय हस्तामलकवत् प्रकट किया है। न्याय-वैशेषिक परम्परा जो सार्वज्ञवादी है उसके सूत्र-भाष्य आदि प्राचीन ग्रन्थों में इस सर्वज्ञास्तित्व की साधक युक्ति का उल्लेख नहीं है। हां, हम प्रशस्तपाद की टीका व्योमवती (पृ. ५६०) में उसका उल्लेख पाते हैं। पर ऐसा कहना नियुक्तिक नहीं होगा कि व्योमवती का वह उल्लेख योगसूत्र तथा उसके भाष्य के बाद का ही है। काम की किसी भी अच्छी दलील का प्रयोग जब एक बार किसी के द्वारा चर्चा क्षेत्र में आ जाता है तब फिर वह आगे सर्वसाधारण हो जाता है। प्रस्तुत युक्ति के बारे में भी यही हुआ जान पड़ता है। संभवतः सांख्य योग परम्परा ने उस युक्ति का आविष्कार किया फिर उसने न्याय, वैशेषिक तथा बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ में भी प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया और इसी तरह वह जैन परम्परा में भी प्रतिष्ठित हुई। जैन परम्परा के आगम, नियुक्ति, भाष्य आदि प्राचीन अनेक ग्रन्थ सर्वज्ञत्व के वर्णन से भरे पड़े हैं, पर हमें उपर्युक्त ज्ञानतारतम्य वाली सर्वज्ञत्व साधक युक्ति का सर्वप्रथम प्रयोग मल्लवादी की कृति में ही देखने को मिलता है। अभी यह कहना संभव नहीं कि मल्लवादी ने किस परम्परा से वह युक्ति अपनाई ! पर इतना तो निश्चित है कि मल्लवादी के बाद के सभी दिगंबरश्वेतांबर ताकिकों ने इस युक्ति का उदारता से उपयोग किया है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है। वह अनावृत अवस्था में भेद या विभाग शून्य होता है। आवरण के कारण उसके विभाग होते हैं और तारतम्य होता है । ज्ञान के तारतम्य के आधार पर उसकी पराकाष्ठा को केवलज्ञान मानना एक पक्ष है किन्तु इससे अधिक संगत पक्ष यह है कि केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव अथवा गुण है। ज्ञानावरण कर्म के कारण उसमें तारतम्य होता है । ज्ञानावरण के क्षय होने पर स्वभाव प्रगट हो जाता है। किसी अन्य दर्शन में ज्ञान आत्मा का स्वभाव या गुण रूप में स्वीकृत नहीं है। इसलिए उनमें सर्वज्ञता का वह सिद्धांत मान्य नहीं है जो जैन दर्शन में है । पण्डित सुखलालजी ने सर्व शब्द को दर्शन के साथ जोड़ा है। उनके अनुसार जो दर्शन जितने तत्त्वों को मानता है, उन सबको जानने वाला सर्वज्ञ होता है । जैन दर्शन ने 'सर्व' शब्द को स्वाभिमत द्रव्य की सीमा में आबद्ध नहीं किया है । उसे द्रव्य के अतिरिक्त क्षेत्र, काल और भाव के साथ संयोजित किया है। केवलज्ञान का विषय है सर्व द्रव्य सर्व क्षेत्र सर्व काल सर्व भाव । द्रव्य का सिद्धांत प्रत्येक दर्शन का अपना-अपना होता है किन्तु क्षेत्र, काल और भाव ये सर्व सामान्य हैं। सर्वज्ञ सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्व काल में जानता देखता है।' न्याय वैशेषिक आदि दर्शनों में ज्ञान आत्मा के गुण के रूप में सम्मत नहीं है इसलिए उन्हें मनुष्य की सर्वज्ञता का सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता । बौद्ध दर्शन में अन्वयी आत्मा मान्य नहीं है इसलिए बौद्ध भी सर्वज्ञवाद को स्वीकार नहीं करते । वेदान्त के अनुसार केवल ब्रह्म ही सर्वज्ञ हो सकता है, कोई मनुष्य नहीं । सांख्य दर्शन में केवलज्ञान अथवा कैवल्य की अवधारणा स्पष्ट जैन दर्शन सम्मत सर्वज्ञता के विरोध में मीमांसकों ने प्रबल तर्क उपस्थित किए। उनके अनुसार प्रत्यक्ष, उपमान, अनुमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। न्याय और वैशेषिक ईश्वरवादी दर्शन हैं। वे ईश्वर को सर्वज्ञ मानते हैं। कालक्रम से उनमें योगी-प्रत्यक्ष की अवधारणा प्रविष्ट हुई है पर जैन दर्शन में केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व मोक्ष की अनिवार्य शर्त है । न्याय और वैशेषिक का मत है-मुक्त अवस्था में योगि-प्रत्यक्ष नहीं रहता । ईश्वर का ज्ञान नित्य है और योगि-प्रत्यक्ष अनित्य ।' १. तत्त्वसंग्रह, पृ. ८२५ एवं तत्वाभ्यासान्नास्मि, न मे नाहमित्यपरिशेषम् । २. नयचक्र लिखित प्रति, प. १२३ अविपर्ययाद् विशुद्धं, केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ ३. नंदी चूणि, पृ. २८ : एते दव्वादिया सव्वे सम्वधा सव्वत्थ प्राप्ते शरीरभेदे चरितार्थत्वाद्, प्रधानविनिवृतौ । सव्वकालं उवयुत्तो सागाराऽणागारलक्खणेहि जाणदंसणेहि ऐकान्तिकमात्यन्तिकमुभयं कैवल्यमाप्नोति ॥ जाणति पासति य । ५. न्यायमंजरी, पृ० ५०८: ४. सांख्यकारिका, ६४, ६८ : तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः । गुणानामात्मनो ध्वंसः सोपवर्गः प्रकीर्तितः॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy