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________________ नंदी यशोविजयजी ने वात, पित्त आदि शारीरिक दोष और सर्वज्ञत्व में विरोध बताने वाले तीन मतों का उल्लेख कर उनका निरसन किया है । शरीर की प्रवृत्ति से मुक्त अयोगि अवस्था में उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं है । सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद किए गए हैं— अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान और परम्पर सिद्धकेवलज्ञान । ये दो भेद काल सापेक्ष किए गए हैं। अनन्तर सिद्धकेवलज्ञान के पन्द्रह भेद सिद्ध होने की पूर्व अवस्था के आधार पर किए गए हैं। यह सूत्र जैनधर्म की विशुद्ध आध्यात्मिकता का प्रतिपादक है। इसमें लिंग, वेश आदि बाह्य परिस्थिति से मुक्त होकर केवल आत्मा के आन्तरिक विकास की स्वीकृति है । १. ती सिद्ध जो श्रमणसंघ में प्रवजित होकर मुक्त होता है।" २. अतीर्थ सिद्ध - चातुर्वर्ण श्रमणसंघ के अनस्तित्व काल में जो मुक्त होता है । चूर्णिकार ने मरुदेवी आदि का उदाहरण प्रस्तुत किया है । हरिभद्रसूरि ने बताया है- जो जातिस्मरण के द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त कर सिद्ध होते हैं वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। चूर्णिकार ने जातिस्मरण का उल्लेख स्वयंबुद्ध के प्रसंग में किया है। स्वयंवुद्ध दो प्रकार के होते हैं-तीर और तीर से इतर । प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थङ्कर से इतर विवक्षित हैं ।" ७० ३. तीर्थङ्कर सिद्ध —— ऋषभ आदि - जो तीर्थकर अवस्था में मुक्त होते हैं ।" ४. अतीर्थकर सिद्ध - जो सामान्य केवली के रूप में मुक्त होते हैं ।" स्वयं बुद्धसिद्ध जो स्वयंबुद्ध होकर मुक्त होता है । स्वयंयुद्ध के दो अर्थ किए गए हैं १. जिसे जातिस्मरण के कारण बोधि प्राप्त हुई है। २. जिसे बाह्य निमित्त के बिना बोधि प्राप्त हुई है । मलयगिरि ने भी इस प्रसंग में जातिस्मरण का उल्लेख किया है । ' ६. प्रत्येकबुद्ध सिद्ध - जो प्रत्येक बुद्ध होकर मुक्त होता है । प्रत्येकबुद्ध का अर्थ है किसी बाह्य निमित्त से प्रतिबुद्ध होने वाला।" ७. बुद्धबोहियसिद्ध - जो बुद्धबोधित होकर मुक्त होता है। पूर्णिकार ने बुद्धबोधित के चार अर्थ किए १. स्वयंबुद्ध तीर्थङ्कर आदि के द्वारा बोधि प्राप्त । २. कपिल आदि प्रत्येक बुद्ध के द्वारा बोधि प्राप्त । ३. बुद्धबोधित के द्वारा बोधि प्राप्त । ४. आचार्य के द्वारा प्रतिबुद्ध से बोधि प्राप्त | १. ज्ञानकरणम्, पृ. २१ अनु २. नन्दी चूर्ण, पृ. २६ : जे लित्थे सिद्धा ते तित्थसिद्धा तित्थं च -- चातुवण्णो समणसंघो पढमादिगणधरा वा । ३. वही, पृ. २६ वसंत अभावोतिकालभावस वा अभावो । तम्मि अतित्थकालभावे अतित्थकालभावातो वा जे सिद्धा ते अतित्थसिद्धा । तं च अतित्थं तित्यंतरे तित्ये या अनुयणो जहा मरुदेविसामिणिव्यभितयो । ४. हारिमीयावृत्ति, पू. ३९ जातिस्मरणाविनावातापवर्ग 3 मार्गाः सिध्यन्त्येव मरुदेवप्रभूतयों वालीसिद्धाः, तदा तीर्थस्यानुत्पन्नत्वात् । ५. नन्दी चूर्ण, पृ. २६ : स्वयमेव बुद्धा स्वयंबुद्धा, सतं अप्पपिल्लं वा जाइसरणादि कारणं पच्च बुद्धा तंबुढा स्फुटतरमुच्यते-- बाह्यप्रत्ययमन्तरेण ये प्रतिबुद्धास्ते स्वयंबुद्धा । ते य दुविहा तित्थगरा तित्थगरवतिरित्ता वा । ६. वही, पृ. २६ : रिसभादयो तित्थकरा, ते जम्हा तित्थकरणामकम्यभावे द्विता तित्वकरभावातो वा सिद्धा Jain Education International तम्हा ते तित्थकर सिद्धा । ७. वही, पृ. २६ : अतित्थकरा सामण्णकेवलिणो गोतमादि, तम्मि अतित्थकर भावे द्विता अतित्थकर भावातो वा सिद्धा अतित्थकर सिद्धा । ८. वही, पृ. २६ ९. मलयगिरीया वृत्ति, प. १३० १०. नन्दी चूणि, पृ. २६ : पत्तेयं - बाह्यं वृषभादि कारणमभि समीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः । बहिःप्रत्ययप्रतिबुद्धानां च पत्तेयं नियमा विधारो जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धता । ११. वही, पृ. २६,२७रादिएहि बोहिता पत्तेयबुद्धेहि वा कविलादिएहि बोधिता ते बुद्धबोधिता । अहवा बुद्धबोधिएहि बोधिता बुद्धबोधिता, एवं सुहम्मा दिएहि जंबुणामादयो भवंति | अहवा बुद्ध इति प्रतिबुद्धा, तेहि प्रतिबोधिता बुद्धबोधता, प्रभवादिभिराचार्यः । एतबावे हिला एतातो वा सिद्धा बुद्धबोधित सिद्धा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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