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प्र०२०२६-३३, टि० २२,२३
हरिभद्र और मलयगिरि ने बुद्धबोधित का अर्थ आचार्य के द्वारा बोधि प्राप्त किया है।'
८. स्त्रीलिङ्गसिद्ध — जो स्त्री की शरीर रचना में मुक्त होता है ।
लिङ्ग के तीन अर्थ हैं - १. वेद ( कामविकार) २. शरीर रचना ३. नेपथ्य ( वेशभूषा)। यहां लिङ्ग का अर्थ शरीर रचना
है । स्त्री, पुरुष और नपुंसक संबंधी लिङ्ग के दो हेतु हैं- १. शरीर नाम कर्म का उदय २. वेद का उदय ।
९. पुरुषलिंग सिद्ध – जो पुरुष की शरीर रचना में मुक्त होता है ।
१०. नपुंसकलिंग सिद्ध- जो कृत्रिम नपुंसक के रूप में मुक्त होता है ।
चूर्णि और वृत्तिद्वय में नपुंसक की व्याख्या उपलब्ध नहीं है । भगवती के अनुसार नपुंसक 'चारित्र का अधिकारी नहीं होता, कृत नपुंसक ही चारित्र का अधिकारी होता है।' अभयदेवसूरि ने पुरुष नपुंसक का अर्थकृत नपुंसक किया है।"
११. स्वगसिद्ध जो मुनि के बैग में मुक्त होता है।
१२. अन्यलिंगसिद्ध – जो अन्यतीर्थी के वेश में मुक्त होता है ।
१३. गृहलिंगसिद्ध जो गृहस्थ के वेश में मुक्त होता है ।
१४. एकसिद्ध जो एक समय में एक जीव सिद्ध होता है।
१५. अनेक सिद्ध जो एक समय में अनेक जीव सिद्ध होते हैं । "
सिद्ध के पन्द्रह भेद नन्दीसूत्रकार के स्वोपज्ञ हैं या इनका कोई प्राचीन आधार है ? प्रतीत होता है यह परम्परा प्राचीन है । उमास्वाति ने सिद्ध की व्याख्या में बारह अनुयोग द्वार बतलाए हैं।" वे प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट पन्द्रह भेदों की अपेक्षा अधिक व्यापक हैं ।
स्थानाङ्ग में सिद्ध के पन्द्रह प्रकारों का उल्लेख मिलता है । प्रज्ञापना में भी इनका उल्लेख है ।" स्थानांग संकलन सूत्र है इसलिए इसकी प्राचीनता के बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । प्रज्ञापना नन्दी की अपेक्षा प्राचीन है। इसलिए प्रज्ञापना, उसके पश्चात् तत्त्वार्थ सूत्र और उसके पश्चात् नन्दी में इन पन्द्रह भेदों का कालक्रम का निर्धारण किया जा सकता है। हो सकता है श्यामार्य ने किसी प्राचीन आगम से उनका अवतरण किया है।
अनेक सिद्ध
एक समय में जघन्यतः दो और उत्कृष्टतः एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं। उत्तराध्ययन में उनकी संख्या इस प्रकार निर्दिष्ट है"
नपुंसक
स्त्री
गृहलिंग
अन्यलिंग १०
१०
२०
उत्कृष्ट अवगाहना
२
ऊर्ध्व लोक
समुद्र
२
पुरुष १०८
जघन्य अवगाहना
४ अन्यजलाशय ३
१. ( क ) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३९
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १३१
२. नन्दी चूर्ण, पृ. २७ : तं तिविहं- वेदो सरीरनिव्वत्ती वच्छं च ।
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३. वही. पृ. २७ : सरीराकारणिव्वत्ती पुण णियमा वेदुदयातो णामकम्मुदयाओ य भवति तम्मि सरीरनिव्वत्तिलिंगे ठिता सिद्धा तातो वा सिद्धा इरिथतियसिद्धा ।
४.
ताथि भा. २. भगवई, २५२८६ २९२
५. भगवृत्ति प. ९३ पुरुषः सन् यो नपुंसक वेदको वद्धितकत्वादिभावेन भवत्यसौ पुरुषनपुंसकवेदकः न स्वरूपेण
नीचालोक २०
सूत्र ३३
२३. (सूत्र ३३)
ज्ञान के दो विभाग हैं-- क्षायोपशमिक और क्षायिक । मति श्रुत, अवधि और मनः पर्यव – ये चार ज्ञानावरण के क्षयोपशम
७१
स्वलिंग
१०८
मध्यम अवगाहना
१०८ तिरक्षालोक १०८
सङ्ख्या - ऽल्पबहुत्वतः साध्याः ।
नपुंसक वेदक: ।
६. नन्दी चूर्ण, पृ. २७ : एकम्मि समए एक्को चैव सिद्धो । ७. वही, पृ. २७ : एकम्मि समए अणेगे सिद्धा ।
८. सभाष्यतत्वार्थाधिगम सूत्रम्, १०1७ : क्षेत्र-काल-गति लिङ्गतीर्थ चारित्र प्रत्येक बुद्धबोधित ज्ञाना-ऽवगाहना - ऽन्तर
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९. ठाणं, १।२१४ - २२८
१०. उवंग सुत्ताणि, पण्णवणा, १।१२
११. उत्तरज्झयणाणि, भाग २, ३६।५१ से ५६
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