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प्र०२, सू० २४-३२, टि० २१-२२
शब्द विमर्श
अम्मतिराए ऋणुमति की अपेक्षा अभ्यधिक ज्ञान यह एक दिशा की अपेक्षा से अभ्यधिक है।' विजलतराए सब दिशाओं में होनेवाले अभ्यधिक ज्ञान को विपुलतर कहा जाता है।"
सूत्र २५
चूर्णिकार ने अभ्यधिकतर और विपुलतर के तीन वैकल्पिक अर्थ किए हैं
१. एक घड़े में दूसरे घड़े से अधिक जल समाता है इसलिए वह पहले से अभ्यधिक होता है और जो अभ्यधिक होता है। उसका क्षेत्र सहज विपुल (विस्तीर्ण) हो जाता है।
इसी प्रकार विपुलमति के विषयभूत मनोव्य का आधार क्षेत्र विस्तृत होता है। इसलिए वह विपुलतर है।'
२. ऋजुमति आयाम विष्कम्भ की दृष्टि से अभ्यधिकतर क्षेत्र को जानता है । विपुलमति क्षेत्र के बाहल्य (मोटाई) को जानता है इसलिए वह विपुलतर क्षेत्र को जानता है ।
३. तृतीय विकल्प में चूर्णिकार ने दोनों को एकार्थक बतलाया है ।"
२२ (सूत्र २६ से ३२)
केवलज्ञान
विशुद्धतराए, वितिभिरतराए विशुद्ध और वितिमिरतर को एकार्यक बतलाया गया है। इनमें भेदरेखा भी खींची गई है । ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी की अपेक्षा विपुलमति मनः पर्यवज्ञानी विशुद्धतर जानता है तथा ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन:पर्यवज्ञानावरण का क्षयोपशम विशिष्ट होता है इसलिए उसे वितिमिरतर कहा गया है।
इसका वैकल्पिक अर्थ है— ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति के पूर्ववद्ध आवरण का पोषण उसे विशुद्ध कहा गया है । विपुलमति में बध्यमान और उदय अवस्था का अभाव होता है इसलिए उसे
गाथा २६-३२
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१. नन्दी चूर्ण, पृ. २४ : रिजुमतिखेतोवलंभप्पमाणातो विपुलमती अम्मतियतरागं खेत्तं उवलभइ ति । एगदिसि पि अब्भतियसंभवो भवति ।
भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान - केवलज्ञान के ये दो भेद सापेक्ष हैं। मीमांसक दर्शन का अभिमत है कि मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता ।" वैशेषिक दर्शन का अभिमत है कि मुक्त जीव में ज्ञान नहीं होता ।' ये दोनों अभिमत जैनदर्शन को स्वीकार्य नहीं हैं । भवस्थ केवलज्ञान इस स्वीकार का सूत्र है कि मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है । सिद्धकेवलज्ञान इस स्वीकृति का सूचक है कि मुक्त आत्मा में केवलज्ञान विद्यमान रहता है ।
भवस्थ केवलज्ञान के दो भेद किए गए हैं—
१. सयोगि भवस्थकेवलज्ञान २. अयोगि भवस्थ केवलज्ञान ।
केवलज्ञान शरीरधारी मनुष्य के होता है शरीर की प्रवृति और केवलज्ञान में कोई विरोध नहीं है। उपाध्याय
२. वही, पृ. २४ : समंततो जम्हा अब्भइयं ति तम्हा विपुलतरागं भण्णति ।
३. वही, पृ. २४: जहा पडो पढातो जलाहारणती अम्मतितो सो पुण नियमा घडागासखेत्तेण विउलतरो भवति एवं विउलमति अब्भतियतरागं मणोलद्धिजीवदव्वाधारं खेत्तं जाणति, तं च नियमा विपुलतरं इत्यर्थः ।
४. वही, पृ. २४, २५ : अहवा आयाम विक्खंभेणं अन्मइतरागं बाहल्लेण विजलतरं खेत्तं उपलभत इत्यर्थः ।
५. वही, पृ. २५ : अहवा दो वि पदा एगट्ठा ।
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विषिष्ट होता है इसलिए वितिमिरतर कहा गया है ।"
६. वही, पृ. २४ जहा पगासगदम्बविसेसातो त्तविमुद्धि विसेसेणऽक्खिज्जति तहा मणपज्जवनाण चरणविसेसातो रिजुमणपज्जवणाणिसमीवातो विपुलमणपज्जवणाणी विसुद्ध - तरागं जाणति, मणपज्जवनाणावरणखयोयसमुत्तमभगतो वा वितिमिरतरागं ति भण्णति । अहवा पुव्वबद्धमणपज्जवनाणावरणखयोवसमुत्तमलंभत्तणतो विसुद्धं ति भणितं तस्सेवाssवरणबज्झमाणस्सऽभावत्तणतो पुण्वबद्धस्स य अणुदत्तगतो वितिमिरतरागं-ति भणति ।
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७. मीमांसा दर्शनम्, श्लोक ११० से १४३
८.
तर्कभाषा, पृ. १९४ एकविंशतिभेदभिन्नस्य दुःखस्यात्यन्तिको निवृति: (मोक्षः) |
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