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नंदी दोनों हो सकते हैं इसलिए अप्रमत्त संयत के साथ गच्छमुक्त श्रेणी को जोड़ना आवश्यक नहीं है।'
इढिपत्त-आमदैषधि आदि लब्धियों से सम्पन्न । इस विषय में चूर्णिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है। कुछ आचार्यों का मत है कि मनःपर्यवज्ञान उसे ही प्राप्त होता है जो नियमतः अवधिज्ञानी होता है।'
सूत्र २४, २५ २१. (सूत्र २४,२५)
मनःपर्यवज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं-ऋजुमति और विपुलमति । इनका अन्तर सूत्रकार ने स्वयं स्पष्ट किया है । चूणि और वृत्तिद्वय में उनके अन्तर का विवरण प्रस्तुत किया गया है । चूणि के अनुसार ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान मन के पर्यायों को जानता है । किन्तु अत्यधिक विशेषण से विशिष्ट पर्यायों को नहीं जानता, जैसे अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया, इतना जान लेता है, किन्तु घट से सम्बद्ध अन्य पर्यायों को नहीं जानता । विपुलमति मनःपर्यवज्ञान मन के पर्यायों को बहु विशेष रूपों से जानता है। जैसे अमुक ने घट का चिन्तन किया, वह घट अमुक देश, अमुक काल में बना है आदि विशिष्ट पर्यायों से युक्त घट को जान लेता है।'
उमास्वाति ने ऋजुमति और विपुलमति का भेद बतलाने के लिए विशुद्धि और अप्रतिपात इन दो हेतुओं का निर्देश किया हैऋजुमति
विपुलमति १. विशुद्ध
१.विशुद्धतर २. प्रतिपात सहित
२. प्रतिपातरहित षट्खण्डागम में ऋजुमति मनःपर्याय के तीन भेद तथा विपुलमति मनःपर्याय के छह भेद किए गए हैं। ऋजु और विपुल शब्द की स्पष्टता के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है । ऋजुमति ऋजुमनोगत, ऋजुवचनगत और ऋजुकायगत व्यापार को जानता है । विपुलमति ऋजु और अनुजु दोनों प्रकार के व्यापार को जानता है। अकलंक ने इसे विस्तार से समझाया है। धवला में भी इनका विशद विवरण उपलब्ध है । श्वेताम्बर साहित्य में यह विषय व्याख्यात नहीं है।
सिद्धसेनगणी ने ऋजुमति को सामान्यग्राही और विपुलमति को विशेषग्राही बतलाया है। उन्होंने सामान्य का प्रयोग स्तोक के अर्थ में और विशेष का प्रयोग अधिक के अर्थ में किया है। किसी व्यक्ति ने घट का चिंतन किया, ऋजुमति उसको जान लेता है किन्तु घट के अनेक पर्यायों का चिंतन किया उन सब पर्यायों को वह नहीं जानता। विपुलमति घट के विषय में चिन्त्यमान सैकड़ों पर्यायों को जान लेता है । सिद्धसेनगणी के सामान्य-विशेष और षट्खण्डागम के ऋजु और वक्र में तात्पर्य की दृष्टि से भेद नहीं है।
मनोविज्ञान की भाषा में ऋजुमति को सरल मनोविज्ञान और विपुलमति को जटिल मनोविज्ञान कहा जा सकता है ।
१. नन्दी चूणि, पृ. २२ : अप्पमत्तसंजता जिणकप्पिया परिहारविसुद्धिया अहालंदिया पडिमापडिवण्णगा य, एते सततोवयोगोवउत्तत्तणतो अप्पमत्ता । गच्छवासिणो पुण पमत्ता, कण्हुइ अणुवयोगसंभवतातो । अहवा गच्छवासी णिग्गता य पमत्ता वि अप्पमत्ता वि भवंति परिणामवसओ। २. वही, पृ. २२ : 'इड्ढिप्पत्तस्से' ति आमोसहिमादि अण्ण
तरइडिढपत्तस्स मणपज्जवनाणं उप्पज्जइ ति। अहवा 'ओहिनाणिणो मणपज्जवनाणं उप्पज्जति' त्ति अण्णे नियम
भणंति। ३. वही, पृ. २२ : ओसण्णं विसेसविमुहं उवलभति,
णातीवबहुविसेसविसिट्ठ अत्यं उवलभइ त्ति, भणितं होति, घडो गेण चितिओ त्ति जाणति । विपुला मती विपुलमती,
बहुविसेसग्गाहिणी त्ति भणितं भवति । मणोपज्जायविसेसे जाणति, दिलैंतो जहा--णेण घडो चितितो, तं च देसकालादिअणेगपज्जायविसेसविसिट्ठ जाणति । ४. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, १२५ : विशुद्धचप्रतिपाताभ्यां
तद्विशेषः। ५. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. ३२८ से ३४४ ६. तत्त्वार्थवार्तिक, १२३ ७. तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी, पृ.१०१ : या मतिः सामान्य गृह्णाति सा ऋज्वीत्युपदिश्यते, या पुनविशेषग्राहिणी सा विपुलेत्युपदिश्यते, ऋजु सामान्यमेकरूपत्वात् विशेषास्तु विविक्ता बहवः।
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