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नंदी
चूणि, नंदी की हारिभद्रीया वृत्ति और मलयगिरीया वृत्ति में इसी मत का अनुसरण है।'
अवधिज्ञानी उत्कृष्टतः सब रूपी द्रव्यों को जानता है । यह वचन परमावधि व सर्वावधि की अपेक्षा से है। देशावधि वाला सब रूपी द्रव्यों को नहीं जानता।
अवधिज्ञानी भाव की दृष्टि से जघन्य और उत्कृष्टतः अनन्त भावों को जानता है। यह सापेक्ष वचन है। चूणि के अनुसार जघन्य पद से उत्कृष्ट पद अनन्त गुणा अधिक है । उत्कृष्ट पद के भाव सब भावों की अपेक्षा अनन्तवें भाग जितने हैं।
हरिभद्रसूरि ने चूणि के विवरण को और अधिक स्पष्ट किया है। उनके अनुसार अवधिज्ञानी आधारभूत ज्ञेय द्रव्य की अनन्तता के कारण अनन्त पर्यायों को जानता है । प्रतिद्रव्य की अपेक्षा वह अनन्त पर्यायों का नहीं जानता । मलयगिरी ने चूणि और हारिभद्रीया वृत्ति का अनुसरण किया है।"
सब भावों को केवलज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है इसलिए अवधिज्ञानी सब भावों के अनन्तवें भाग को जानता है। प्रस्तुत सूत्र में इसका निर्देश किया गया है।
धवला में भी अनन्त पर्यायों को जानने का निषेध किया गया है । उसके अनुसार अवधिज्ञानी असंख्येय पर्यायों को जानता है।' मलयगिरि के अनुसार अवधिज्ञानी संख्येय और असंख्येय दोनों प्रकार के पर्यायों को जानता है। भाव-हरिभद्र और मलयगिरि ने भाव का अर्थ पर्याय किया है। धवला में वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहा गया है।'
गाथा १ १८. (गाथा १)
अवधिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से अनेक विकल्प होते हैं। प्रस्तुत गाथा में इसका इङ्गित किया गया है। चूणि के अनुसार वे इस प्रकार हैं।" द्रव्य की दृष्टि से परमाणु, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि विकल्पों का प्रत्यक्ष ज्ञान ।
क्षेत्र की दृष्टि से अंगुल का असंख्येय भाग आदि विशिष्ट क्षेत्रों के विकल्पों का प्रत्यक्ष ज्ञान । काल की दृष्टि से आवलिका का असंख्येय भाग आदि विशिष्ट कालखंड के विकल्पों का प्रत्यक्ष ज्ञान । भाव की दृष्टि से वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के एक गुणात्मक, द्विगुणात्मक आदि विकल्पों का प्रत्यक्ष ज्ञान । हरिभद्र और मलयगिरि दोनों ने चूणि का ही अनुसरण किया है । " धवला में विकल्प का विस्तृत विवरण मिलता है ।१२
१. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ६७३
तेया-कम्मसरीरे तेयादव्वे य भासदब्वे य । (ख) नन्दी चूणि, पृ. २० (ग) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३० (घ) मलयगिरीया वृत्ति, प. ९७ २. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ६८५
परमोहि असंखेज्जा लोगंमित्ता समा असंखेज्जा। रूवगयं लहइ सव्वं खेत्तोवमियं अगणिजीवा ॥ ३. नन्दी चूणि, पृ. २० : भावतो ओधिण्णाणी जहणेणं
अणंते भावे उवलभति, उक्कोसतो वि अणंते, जहण्णपदातो उक्कोसपदं अणंतगुणं । उक्कोसपदे वि जे भावा ते सम्वभावाण अणंतभागे बति।। ४, हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३०: भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनानन्तानन्तान् 'भावान्' पर्यायान्, आधारद्रव्यानन्तत्वात्, न तु प्रतिद्रव्यमिति, उत्कृष्टतोऽप्यनन्तान् भावान् जानाति पश्यति, तेऽपि चोत्कृष्टपदिनः 'सर्वभावनां' सर्वपर्यायाणा
मनन्तभाग इति। ५. मलयगिरीया वृत्ति, प. ९८ ६. षटखण्डागम, पुस्तक, पृ. २८ ७. मलयगिरीया वृत्ति, प. ९८ : प्रतिद्रव्यं संख्येयानाम___ संख्येयान वा पर्यायाणां दर्शनात् । ८. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३०
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ९८ ९. षट्खण्डागम पुस्तक ९, पृ. २६-५१ १०. नन्दी चूणि, पृ. २० : दव्वतो बहू विगप्पा परमाणुमादि
दव्वविसेसातो । खेतत्तो वि अंगुल असंखेयभागविककप्पादिया। कालतो वि आवलिय अंखेज्जभागादिया।
भावतो वि वण्णपज्जवादिया ॥ ११. (क) हारिभद्रीया वृत्ति पृ. ३०, ३१
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ९८ १२. षट्खण्डागमः, पुस्तक ९, पृ. २६ से १
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