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________________ प्र० २, गा० ७,८, सू० १९-२२, टि० १३-१७ सूत्र १९ १५. (सूत्र १६) चूणि, हारिभद्रीया वृत्ति और मलयगिरीया वृत्ति में हीयमानक अवधिज्ञान के विषय में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। धवला में इसका कुछ विवरण उपलब्ध है जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कृष्ण पक्ष के चन्द्रमण्डल के समान विनष्ट होने तक घटता ही जाता है वह हीयमान अवधिज्ञान है। इसका अन्तर्भाव देशावधि में होता है। परमावधि और सर्वावधि में हानि नहीं होती इसलिए हीयमान का अन्तर्भाव उसमें नहीं होता।' शब्द विमर्श संकिलिस्समाण-अप्रशस्त लेश्या से उपरंजित चित्त तथा अनेक अशुभ विषयों का चिन्तन करनेवाला चित्त संक्लिष्ट कहलाता है। सूत्र २०-२१ १६. (सूत्र २०,२१) प्रस्तुत आगम में प्रतिपाति अवधिज्ञान की विषय-वस्तु स्पष्ट है। उसके अनुसार उसके प्रतिपात के हेतु का कोई उल्लेख नहीं है किन्तु हीयमान अवधिज्ञान के प्रसंग में हीन होने के दो कारण बतलाए गए हैं-अप्रशस्त अध्यवसान स्थान और संक्लेश । प्रतिपात के ये ही कारण हो सकते हैं। विषय वस्तु के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रतिपाति अवधिज्ञान देशावधि है क्योंकि देशावधि का उत्कृष्ट विषय सम्पूर्ण लोक है। जो अलोक के एक प्रदेश को भी देख लेता है वह प्रतिपाति नहीं होता। परमावधि अलोक में लोक जितने असंख्य खण्डों को जान सकता है। सर्वावधि उससे भी अधिक जानता है इसलिए परमावधि और सर्वावधि दोनों अप्रतिपाति धवला के अनुसार प्रतिपाति अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मल नष्ट हो जाता है। अप्रतिपाति अवधिज्ञान केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है। अप्रतिपाति के विषय में हरिभद्रसूरि का भी यही मत है। सूत्र २२ १७. (सूत्र २२) प्रस्तुत सूत्र में अवधिज्ञान के विषय पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से विचार किया गया है । अठारहवें सूत्र की गाथाओं में अवधिज्ञान के क्षेत्र काल तथा द्रव्य और पर्याय की वृद्धि के क्रम पर विचार किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में अवधिज्ञान के विषय का सामान्य निर्देश है। सूत्र का पाठ है-अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता देखता है, उत्कृष्टत: सब रूपी द्रव्यों को जानता देखता है । अनन्त की व्याख्या आवश्यक नियुक्ति में मिलती है। पुद्गल की आठ वर्गणाएं हैं.-१. औदारिक वर्गणा २. वैक्रिय वर्गणा ३. आहारक वर्गणा ४. तेजस वर्गणा ५. भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा ७. मनो वर्गणा ८. कर्म वर्गणा। नियुक्ति के अनुसार प्रारम्भिक अवस्थावाला अवधिज्ञानी तेजस और भाषा वर्गणा के मध्यवर्ती द्रव्यों को जानता है। विशेषावश्यक भाष्य, नंदी १. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९३ : किण्हपक्खचंदमंडलं व जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं वढि-अवट्ठाणेहि विणा हायमाणं चेव होदूण गच्छदि जाव णिस्सेसं विणळं ति तं हायमाणं नाम । एवं देसोहीए अंतो णिवददि, ण परमोहि-सव्वोहीसु, तत्थ हाणीए अभावादी। २. नन्दी चूणि, पृ.१९ : अप्पसत्थलेस्सोवरंजितं चित्तं अणेगासुभचितणपरं चित्तं संकिल्लिट्ठ भण्णति । ३. तत्त्वार्थवात्तिक, सू. ८१ : उत्कृष्टः सर्वलोकः । ४. विशेषावश्यक भाष्य, गा.६८५ ५. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ, २९५ : जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं केवलणाणे समुप्पण्णे चेव विणस्सदि, अण्णहा ण विणस्सदि, तमप्पडिवादी नाम । ६. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २९ ७. आवश्यक नियुक्ति, गा० ३८ Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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