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________________ प्र० २, गा० १,२, सू० २३, टि० १८-२० गाथा २ १६. (गाथा २) नैरयिक और देवों के अवधिज्ञान की दो विशेषताएं बतलाई गई हैं-१. अवधिज्ञान की अबाह्यता २. सर्वतः देखने की शक्ति का विकास । अवधिज्ञान की अबाह्यता के तीन अर्थ हो सकते हैं० नैरयिक और देव में अवधिज्ञान नियमतः होता है । • उनका अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक होता है। • उनका अवधिज्ञान मध्यगत होता है । मध्यगत अवधिज्ञान में ही सर्वत: देखने की शक्ति होती है।' उक्त तीनों नियम तीर्थंकर के अवधिज्ञान में भी घटित होते हैं इसलिए प्रस्तुत गाथा में उनका भी ग्रहण किया गया है। सूत्र २३ २०. (सूत्र २३) मनःपर्यवज्ञान से मन के पर्यायों को जाना जाता है। मन का निर्माण मनोद्रव्य की वर्गणा से होता है। मन पौद्गलिक है और मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के पर्यायों को जानता है । अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य है और मनोवर्गणा के स्कन्ध भी रूपी द्रव्य हैं। इस प्रकार दोनों का विषय एक ही बन जाता है । मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान का एक अवान्तर भेद जैसा प्रतीत होता है। इसीलिए सिद्धसेन ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक माना है। उनकी परम्परा को सिद्धांतवादी आचार्यों ने मान्य नहीं किया है। उमास्वाति ने संभवत: पहली बार अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के भेद-ज्ञापक हेतुओं का निर्देश किया है-विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय । हो सकता है सिद्धसेन की अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक मानने की विचारसरणि उनके सामने रही हो। उसे अमान्य करते हुए अवधिज्ञान और मन.पर्यवज्ञान की स्वतन्त्रता का समर्थन किया हो। अवधि और मन:पर्यव दोनों अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, योगदर्शन, बौद्धदर्शन और जैनदर्शन में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का वर्णन मिलता है। किन्तु जैन आगमों में जितना विस्तार के साथ इन दोनों का निरूपण हुआ है उतना अन्य किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। प्राचीन न्याय दर्शन में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का उल्लेख नहीं है । नव्य न्याय में गंगेश उपाध्याय ने योगज प्रत्यक्ष का उल्लेख किया है। वैशेषिक सूत्र के प्रशस्तपाद भाष्य में वियुक्तयोगिप्रत्यक्ष का साधारण वर्णन मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के विषय में श्रमण दर्शनों ने ही अधिक ध्यान दिया है। पातञ्जलयोगदर्शन में तारा व्यूह ज्ञान आदि का उल्लेख है जो अतीन्द्रिय ज्ञान के सूचक हैं।' परचित्त ज्ञान का उल्लेख योगसूत्र' व बौद्धदर्शन दोनों में मिलता है। पण्डित सुखलालजी ने मनःपर्याय के दो मतों की चर्चा की है'-"मन:पर्याय ज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं- इस विषय में जैन परम्परा में ऐकमत्य नहीं है। नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र एवं १. (क) नवसुत्ताणि, नंदी, सू. १६ (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३१ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ९९ २. निश्चयनय द्वात्रिशिका, श्लोक १७: प्रार्थनाप्रतिघाताभ्यां चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः । मनःपर्यायविज्ञानं युक्तं तेषु न चान्यथा ॥ ३. (क) तत्वार्थाधिगमसूत्रम् १२६ : विशुद्धिक्षेत्रस्वामि विषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः । (ख) तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी, पृ. १०२, १०३ (ग) तत्त्वार्थवातिक, पृ.८६, ८७ ४. तत्वचिन्तामणि-प्रत्यक्ष खण्ड, प्रथम भाग,-प्रत्यक्ष लक्षणवाद पृष्ठ ५७१ ५. कंदलीटीका सहित प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ४६५ : वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसन्निकर्षाद् योगजधर्मानुग्रहसामर्थ्यात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते । ६. पातञ्जलयोगदर्शनम्, ३३२७ : चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् । ७. वही ३१९ : प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् । ८. अभिधम्मत्थसंगहो, ९.२४ ९. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, परिचय, पृ. ४१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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