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प्र०२, सूत्र ७-६, टि०५-७
१. गुण के बिना होनेवाला क्षयोपशम । २. गुण की प्रतिपत्ति से होनेवाला क्षयोपशम ।
गुण के बिना होने वाले अवधिज्ञान को समझाने के लिए चूर्णिकार ने रूपक का प्रयोग किया है। आकाश बादलों से आच्छन्न है । बीच में कोई छिद्र रह गया । उस छिद्र में से स्वाभाविक रूप से सूर्य की कोई किरण निकलती है और वह द्रव्य को प्रकाशित करती है, वैसे ही अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर यथाप्रवृत्त अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है, वह गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम है।
क्षयोपशम का दूसरा हेतु है-गुण की प्रतिपत्ति । यहां गुण शब्द से चारित्र विवक्षित है। चारित्र गुण की विशुद्धि से अवधिज्ञान की उत्पत्ति के योग्य क्षयोपशम होता है, वह गुण प्रतिपत्ति से होनेवाला क्षयोपशम है।
मलय गिरि ने लिखा है कदाचित् विशिष्ट गुण की प्रतिपत्ति के बिना और कदाचित् विशिष्ट गुण की प्रतिपत्ति से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है।
७. (सूत्र ६)
षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के तेरह प्रकार बतलाए गए हैं१. देशावधि ६. अवस्थित
११. अप्रतिपाति २. परमावधि ७. अनवस्थिति
१२. एकक्षेत्र ३. सर्वावधि ८. अनुगामी
१३. अनेक क्षेत्र ४. हायमान
९. अननुगामी ५. वर्धमान
१०. सप्रतिपाति ठाण में देशावधि का, प्रज्ञापना' में देशावधि व सर्वावधि दोनों का तथा विशेषावश्यक भाष्य में परमावधि का उल्लेख मिलता है। एक क्षेत्र, अनेक क्षेत्र का समावेश अंतगत और मध्य गत में हो जाता है। विशेषावश्यक भाष्य में अवस्थित का उल्लेख मिलता है।' तत्त्वार्थ भाष्य में प्रतिपाति और अप्रतिपाति के स्थान पर अवस्थित और अनवस्थित का प्रयोग किया गया है।" प्रज्ञापना में प्रतिपाति, अप्रतिपाति, अवस्थित और अनवस्थित इन चारों का उल्लेख है।"
प्रतीत होता कि अवधिज्ञान के विभिन्न वर्गीकरण सापेक्ष दृष्टि से किए गए हैं। तत्वार्थवार्तिक में प्रकारान्तर से अवधिज्ञान के तीन भेद किए गए हैं१. देशावधि २. परमावधि ३. सर्वावधि ।
१ वर्धमान २. हीयमान ३. अवस्थित ४. अनवस्थित ५. अनुगामी ६. अननुगामी ७. प्रतिपाति ८. अप्रतिपाति- इनका देशावधि में समवतार किया गया है। हीयमान और प्रतिपाति इन दो को छोड़कर शेष छ: का परमावधि में समवतार किया गया है । अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाति- इनका सर्वावधि में समवतार किया गया है।"
१. नन्दी चूणि, पृ. १५ : गुणमंतरेण जहा गगणब्भच्छादिते
अहापवत्तितो छिद्देणं दिणकरकिरण व्व विणिस्सिता दन्वमुज्जोवंति तहाऽवधिआवरणखयोवसमे अवधिलंभो अधापवत्तितो विण्णेतो। २. वही, पृ. १५ : उत्तरुत्तरचरणगुणविसुज्झमाणमवेक्खातो । अवधिणाणदंसणावरणाण खयोवसमो भवति । तक्खयोवसमे
य अवधी उप्पज्जति। ३. मलयगिरीया वृत्ति, प. ८०, ८१। ४. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९२ ५. द्रष्टव्य-ठाणं, २।१९३ सूत्र का टिप्पण । ६. उवंगसुत्ताणि खण्ड २, पण्णवणा, पद ३३।३१
७. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ७१७ ८. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९५ ९. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ७१७ १०. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ११२३ का भाष्य : अनवस्थितं हीयते
वर्धते वर्धते हीयते च । प्रतिपतति चोत्पद्यते चेति । पुनः पुनरुमिवत् । अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति ततो न
प्रतिपतत्याकेवलप्राप्तेरवतिष्ठते । ११. उवंगसुत्ताणि खण्ड २, पण्णवणा, पद ३३॥३५ १२. तत्त्वार्थवार्तिक १२२१४ : पुनरपरेऽवधेस्त्रयों भेदाः देशा
वधिः परमावधिः सर्वावधिश्चेति । १३. वही,
प्रतिपतत्याका
२, पण्णवणा,
यो, भेदाः द
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