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________________ ५४ नंदी के बिना नहीं जान सकती इसलिए इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष है।' जिनभद्रगणी ने इन्द्रियजन्य ज्ञान की परोक्षता पौद्गलिक इन्द्रियों के आधार पर बतलाई है ।' चूर्णिकार ने उनका अनुसरण किया है। चुणिकार ने इन्द्रियज्ञान के विषय में कर्मशास्त्रीय चर्चा की है। आत्मा शरीर में व्याप्त है, क्षयोपशम सब आत्मप्रदेशों में होता है । द्रव्येन्द्रिय का स्थान नियत है । इस अवस्था में द्रव्येन्द्रियों के नियत स्थान में अवस्थित आत्मप्रदेशों को छोड़कर शेष आत्मप्रदेशों से विषय की अर्थोपलब्धि नहीं होगी। क्षयोपशम की निरर्थकता हो जाएगी। आचार्य ने इसके समाधान में कहा-जैसे तलघर के एक भाग में रखा हुआ दीप पूरे तलघर को प्रकाशित करता है वैसे ही सब आत्मप्रदेशों में होनेवाला क्षयोपशम द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से अर्थोपलब्धि करता है इसलिए क्षयोपशम की व्यर्थता नहीं है।' इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के प्रकरण में मन का इन्द्रिय से पृथक् उल्लेख नहीं है। ५. (सूत्र ७) नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान है। इस कोटि का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का साक्षात्कार कर सकता है। पदार्थ मूर्त और अमूर्त दो प्रकार के होते हैं । अवधि और मनःपर्यव ये दो ज्ञान केवल मूर्त पदार्थों का साक्षात्कार कर सकते हैं। केवलज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के विषय हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान क्षायोपशमिक होते हैं इसलिए ये अपूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान की कोटि के हैं। केवलज्ञान क्षायिक है, ज्ञानावरण के सर्वथा क्षीण होने से उत्पन्न होता है इसलिए वह परिपूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान है। अतीन्द्रिय ज्ञान का पहला प्रकार है-अवधिज्ञान । इसके विकास की अनेक कोटियां अथवा मर्यादाएं हैं । इसलिए इसकी संज्ञा अवधिज्ञान है । इसका संबंध अवधान अथवा प्रणिधान से है। इसलिए इसकी संज्ञा अन्वर्थक है । इसकी उत्पत्ति के दो हेतु हैं १. भव २. क्षयोपशम । सूत्र ८ ६. (सूत्र ८) अवधिज्ञान क्षायोपशमिक है। वह क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। इस प्रसंग में क्षयोपशम की व्याख्या उपलब्ध है। क्षय और उपशम की प्रक्रिया-उदयावलिका में प्रविष्ट ज्ञानावरण का क्षय और अनुदीर्ण ज्ञानावरण कर्म का उपशमक्षयोपशम का हेतु है । उपशम का तात्पर्य है १. उदयावलिका में आने योग्य कर्मपुद्गलों को विपाक के अयोग्य बना देना, प्रदेशोदय में बदल देना । २. विपाक को मंद कर देना, तीव्र रस का मंद रस में परिणमन ।' हरिभद्रसूरि ने उपशम का अर्थ उदय का निरोध और मलयगिरि ने उसका अर्थ विपाकोदय का विष्कम्भ किया है। सूत्रकार ने गुणप्रतिपन्न का उल्लेख कर अवधिज्ञान के विषय में नया संकेत दिया है। चूर्णिकार ने उस संकेत के आधार पर क्षयोपशम के दो प्रकारों का निरूपण किया है१. (क) नन्दी चूणि, पृ. १५ : भाविदियोवयारपच्चक्खत्तणतो वेति तहा दठिवदिमेत्तपदेसविसयपडिबोधओ सब्वातप्पदेसोएतं पच्चक्खं, परमत्थओ पुण चितमाणं एतं परोक्खं । कम्हा? वयोगत्थपरिच्छेययो खयोवसमसाफल्लया य भवति ति ण जम्हा पर दविदिया, भाविदियस्स य तदायत्तप्पणतो। दोसो। (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प.७१ : आत्मनो द्रव्येन्द्रियाणि ४. नन्दी चूणि, पृ. १५ : णोइंदियपच्चक्खं ति इंदियातिरित्तं । ____ द्रव्यमनश्च पुद्गलमयत्वात् पराणि वर्तन्ते । ५. द्रष्टव्य-अणुओगदाराई, सू. २८७ का टिप्पण । २. विशेषावश्यक भाष्य, गा.९० ६. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २२ : 'उपशमेन' उदयनिरोधेन । ३. नन्दी चणि. पृ. १४१५ : ननु दविदियावत्थियपदेसमेत्त- ७. मलयगिरीया वृत्ति, प. ७७ : उपशमेन विपाकोदयविष्कग्गहणतो सेसप्पदेसेसु अणुवलद्धी खयोवसमनिरत्थता वा म्भलक्षणेन। भवति । आयरिया आह : ण एवं, पदीवदिद्रुतसामत्थतो, ८. नन्दी चूणि, पृ. १५ : खयोवसमो गुणमंतरेण गुणपडिवत्तितो जहा चतुसालभवणेगदेसजालितो पदीवो सव्वं भवणमुज्जो वा भवति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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