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प्र० २, सू० ४,५, टि०३,४
गया है।' मलधारी हेमचंद्र ने इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है।'.... प्रत्यक्ष का नियामक तत्त्व
प्रत्यक्ष के नियामक तत्त्व की चर्चा प्रायः सभी दर्शनों में की गयी है। बौद्ध दार्शनिक के अनुसार निर्विकल्प ज्ञान प्रत्यक्ष है । जैन आगमों में प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ 'जाणइ पासई'-इन दो पदों का उल्लेख मिलता है। 'जानाति' सविकल्प ज्ञान का और 'पश्यति' निर्विकल्पक ज्ञान का द्योतक है इसलिए जैन दर्शन की दृष्टि में निर्विकल्प ज्ञान प्रत्यक्ष का नियामक तत्त्व नहीं है । वैशेषिक
और न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष का नियामक तत्त्व है- इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से होनेवाली अर्थोपलब्धि । जैन दर्शन में प्रत्यक्ष के नियामक की दो परम्पराएं प्रचलित हैं--आगमिक और दर्शन युगीन । आगमिक परम्परा के अनुसार प्रत्यक्ष का नियामक है-इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष ज्ञान अर्थात् केवल आत्मिक विशुद्धि से होनेवाला ज्ञेय का साक्षात्कार । दार्शनिक परम्परा में इंद्रिय मनोजन्य ज्ञान भी प्रत्यक्ष का नियामक माना गया है किन्तु उसे वास्तविक प्रत्यक्ष किसी भी जैन दार्शनिक ने नहीं माना है । उसे केवल सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में परिगणित किया है।
सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष का नियामक तत्त्व अपरोक्षत्व को माना है किन्तु उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने उसका अनुसरण नहीं किया । अकलंक ने प्रत्यक्ष को नियामक तत्त्व विशदता को माना है। उत्तरवर्ती दार्शनिक ग्रंथों में उसी का अनुसरण किया गया है। वास्तव में इन्द्रिय एवं मन से निरपेक्ष ज्ञान-प्रत्यक्ष का यह लक्षण अधिक स्पष्ट है । वैशद्य का यह अर्थ किया गया है कि प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति में इन्द्रिय मनोजन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता।
इदन्तया प्रतिभास को वैशद्य कहा गया है । उसका आधार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष का नियामक तत्त्व एक ही है और वह है इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष ज्ञान-किसी माध्यम के बिना केवल आत्मा से होने वाला ज्ञान ।
४. (सूत्र ५)
चूर्णिकार ने इन्द्रिय के दो प्रकार बतलाए हैं१. द्रव्य-इन्द्रिय । २. भाव-इन्द्रिय ।
इन्द्रियों की संस्थान (आकृति) रचना द्रव्येन्द्रिय है । सब आत्मप्रदेशों में स्वावरण-क्षयोपशम के कारण जो जानने की शक्ति उत्पन्न होती है वह भावेन्द्रिय है। हरिभद्र और मलयगिरि ने इन्द्रिय के चार भेदों का उल्लेख किया है--
१. द्रव्येन्द्रिय के दो प्रकार हैं-निर्वृत्ति और उपकरण । २. भावेन्द्रिय के दो प्रकार हैं-लब्धि और उपयोग । निर्वत्ति-आकार रचना । उपकरण-विषय ग्रहण की पौद्गलिक शक्ति । लब्धि-जानने की शक्ति । उपयोग-जानने की प्रवृत्ति ।
इनमें प्रथम दो पौद्गलिक हैं, अन्तिम दो ज्ञानात्मक हैं। भावेन्द्रिय के द्वारा होने वाले ज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा गया है। वास्तव में यह परोक्ष है । इसका हेतु यह है कि भावेन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय (पौद्गलिक इन्द्रिय) के अधीन है । वे द्रव्येन्द्रियों के माध्यम
१. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २०
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ७६ २. विशेषावश्यकभाष्य, गा. ९५ की वृत्ति । ३. न्यायबिन्दु, १४ :प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नामजात्याद्यसंयुतम् । ४. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. २२ ५. न्यायसूत्र, १।१।४ : इन्द्रिार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यम .. व्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् । ६. न्यायावतार, कारिका ४
७. सिद्धिविनिश्चय, ११९ : प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम् । ८. नंदी चूणि, पृ. १४ : पुग्गलेहिं संठाणणिव्वत्तिरूवं दविदियं, सोइंदियमादिइंदियाणं सव्वातप्पदेसेहि स्वावरणक्खतोव
समातो जा लद्धी तं भाविदियं । ९. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २०
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ७५,७६ १०. नन्दी चूणि, पृ. १४
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