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नंदी
और अभिनिबोध शब्द के उपरांत संज्ञा, प्रज्ञा, स्मृति आदि अनेक पर्याय शब्दों की जो वृद्धि देखी जाती है और पञ्चविध ज्ञान का जो प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से विभाग देखा जाता है वह दर्शनान्तरीय अभ्यास का ही सूचक है।"
उमास्वाति ने पञ्चविध ज्ञान को दो प्रमाणों में विभक्त किया है।" मतिज्ञान, श्रुतज्ञान को परोक्ष' तथा अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष बतलाया है। सिद्धसेन ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग किए हैं किन्तु उनका ज्ञान पंचक के साथ कोई संबंध नहीं जोड़ा है । उमास्वाति का यह नया प्रस्थान है । उन्होंने प्रमाण के दो विभाग कर उनका संबंध ज्ञान पंचक के साथ स्थापित किया है । कुन्दकुन्द ने ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग किए हैं उनके साथ प्रमाण की कोई चर्चा नहीं की । देववाचक ने ज्ञान के पांच प्रकारों का निर्देश कर फिर उनके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग किए हैं किन्तु ज्ञान पंचक के साथ उनकी संबंध योजना नहीं की है।
३. ( सूत्र ४ )
उमास्वाति ने इन्द्रिय जन्य ज्ञान को परोक्ष की कोटि में परिगणित किया है। सर्वप्रथम आर्यरक्षित ने प्रत्यक्ष को दो भागों में विभक्त किया- - १. इन्द्रिय प्रत्यक्ष २. नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । इसका कारण स्पष्ट है । वे जैन मुनि बनने से पहले न्याय दर्शन की परम्परा में प्रतिष्ठित थे । न्याय दर्शन में इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष माना गया है।" इन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्वीकार में न्याय दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। इस विषय में देववाचक ने अनुयोगद्वार का अनुसरण किया है। आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा की चर्चा नहीं की । देववाचक एक और इन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्वीकार करते हैं, दूसरी ओर अभिनिबधिक ज्ञान और अवग्रह- चतुष्क को परोक्ष की कोटि में मानते हैं । इन्द्रियजन्य ज्ञान की प्रक्रिया अवग्रह आदि हैं, वे परोक्ष हैं फिर प्रत्यक्ष ज्ञान कैसे होगा ? इस विरोधाभास का समाधान जिनभद्र गणी ने दिया है। उन्होंने लिखा है— हेतु से होने वाला अनुमान ज्ञान एकान्ततः परोक्ष है किन्तु इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान हेतु के बिना वस्तु का साक्षात्कार करता है इसलिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जा सकता है । "
चूर्णिकार ने इन्द्रियज्ञान के प्रत्यक्ष होने का हेतु यह बतलाया है कि भावेन्द्रिय की अपेक्षा इन्द्रियजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है । द्रव्येन्द्रिय के आयत्त होने के कारण वह परोक्ष है। "
सूत्र ४
के ग्रंथों में सांव्यवहारिक हेतु का उल्लेख किया गया है किन्तु चूर्णि सम्मत हेतु का उपयोग नहीं किया गया ।
दार्शनिक युग नंदी सूत्र में इन्द्रिय प्रत्यक्ष का उल्लेख है वह वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । व्याख्याकार मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार यह लोक व्यवहार की अपेक्षा प्रत्यक्ष है।" उन्होंने इन्द्रियजन्य ज्ञान को वास्तविक दृष्टि से परोक्ष और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष बतलाया है। इस अपेक्षाभेद के कारण दोनों निरूपणों में विरोधाभास नहीं है ।
'नो' पद का प्रयोग देश निषेध और सर्व निषेध दोनों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ में इसका प्रयोग सर्व निषेध के अर्थ में किया
१. तत्वार्थाधिगमसूत्रम्, १२९,१० मतिभूताधिमनः पर्याव केवलानि ज्ञानम्, तत् प्रमाणे ।
२. वही, १1११ : आद्ये परोक्षम् ।
३. वही, १।१२ : प्रत्यक्षमन्यत् ।
४. न्यायावतार, कारिका १ :
प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवजितम् ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्वयात् ॥
५. प्रवचनसार, १५८
६. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्, १।११ आद्ये परोक्षम् ।
७. अणुओगदाराई, सू. ५१६ से किं तं पच्चक्खे ? पच्चक्ले दुविहे पण्णत्ते, तं जहा इंदियपच्चक्खे नोइंदियपञ्चकखे य ॥
८. न्यायसूत्र, १1१1४ इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यम
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व्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् । ९. नवसुताणि, नंदी, सू. ३४, ३९
१०. विशेषावश्यकभाष्य, गा. ९५
एवं परोक्खं लिथियमोहाइयं च पचवणं । इंदिय-मगोमतं संयवहारपयपणं ॥
११. नन्दी चूर्ण, पृ. १५ : भाविदियोवयारपच्चक्खत्तणतो एवं पच्चवखं, परमत्थओ पुण चिंतमाणं एतं परोक्खं । कम्हा ? जम्हा परा दव्वंदिया, भाविदियस्स य तदाय सप्पणतो । १२. विशेषावश्यकभाष्य, गा. ९५ की वृत्ति यत्पुनरिन्द्रिय
मनोभवं ज्ञानं तत् संव्यवहारप्रत्यक्षम् लिङ्गमन्तरेणैव यदिन्द्रिय मनसां वस्तु साक्षात्कारित्वेन ज्ञानमुपजायते तत् तेषां प्रत्यक्षत्वाल्लोकव्यवहारमात्रापेक्षया प्रत्यक्षमुच्यते, न परमार्थत इत्यर्थः ।
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