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________________ प्र० २ ० २,३, टि० १,२ का ग्रहण होता है उसका मानसिक संबोध करना श्रुतज्ञान का कार्य है ।" मलयगिरि ने श्रुतज्ञान का अर्थ वाच्य वाचक के संबंध से होने वाला ज्ञान किया है। जैसे घट (वस्तु) वाच्य है और घट शब्द वाचक है। अमुक आकार की वस्तु जो जलधारण करने में समर्थ है वह घट शब्द द्वारा वाच्य है। इस प्रकार का ज्ञान श्रुतज्ञान है । " प्राचीन काल में ज्ञान का प्रमुख स्रोत श्रवण था इसलिए श्रवण से होने वाले ज्ञान को श्रुत या श्रुति कहा गया। इस श्रवण के आधार पर ही चूर्णिकार' और टीकाकार ने श्रुत की व्युत्पत्ति की है । ३. अवधिज्ञान जो प्रत्यक्ष ज्ञान अवधानपूर्वक होता है अथवा एक अवधि के साथ होता है वह अवधिज्ञान है । " ४. मनः पर्यवज्ञान - मनोवगंणा के माध्यम से मानसिक भावना को जानने वाला ज्ञान मनः पर्यवज्ञान है । ५. केवलज्ञान जिनभद्रगणी ने केवल शब्द के पांच अर्थ किए हैं १. एक २. शुद्ध ३. सकल ४. असाधारण ५. अनन्त । १. एक केवलज्ञानमति श्रुत आदि ज्ञानों से निरपेक्ष होता है। २. शुद्ध - यह शुद्ध सर्वथा निरावरण होता है । ३. सकल -यह विभाग रहित अखण्ड होता है । आवरण के कारण ज्ञान विकल होता है । आवरण के क्षीण होने पर स्वभाव से ही वह सकल है । ४. असाधारण - यह दूसरे ज्ञानों से विशिष्ट होता है । ५. अनन्त ज्ञेय अनन्त हैं । केवलज्ञान में सब ज्ञेयों को जानने की क्षमता है इसलिए वह अनन्त है ।" मलधारी हेमचन्द्र ने अनन्त का अर्थ अप्रतिपाति किया है । केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद कभी विलुप्त नहीं होता इसलिए वह अनन्त - अपर्यवसित है ।" सूत्र ३ २. ( सूत्र ३ ) प्रस्तुत आगम में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग किए गए हैं। ये विभाग उत्तरकालीन हैं। प्राचीन काल में ज्ञान के पांच प्रकार ही किए गए। उनका प्रत्यक्ष परोक्ष जैसा कोई विभाग नहीं है। प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष का प्रयोग प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में मिलता है । परोक्ष शब्द का प्रयोग जैन ज्ञान मीमांसा अथवा जैन प्रमाण मीमांसा के अतिरिक्त किसी अन्य दर्शन में नहीं मिलता। इसका प्रयोग सबसे पहले किस आचार्य ने किया ? यह एक प्रश्न है । ज्ञान के ये दो विभाग आवश्यक निर्युक्ति, तत्त्वार्थसूत्र, प्रवचनसार और नन्दी में मिलते हैं । प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजी तथा दलसुखभाई मालवणिया ने ज्ञानविन्दुपरिचय में लिखा है , "दूसरी भूमिका वह है जो प्राचीन नियुक्ति भाग में इसमें दर्शनान्तर के अभ्यास का थोड़ा-सा असर अवश्य जान १. द्रष्टव्य - अणुओगदाराई, सूत्र २ का टिप्पण । २. मलयगिरीया वृत्ति, प. ६५ श्रवणं श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थं घटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमसोऽयगमविशेषः । २. नन्दी भूमि पृ. १३ तेण वा सुति लम्हा वा सुति, तम्हि वा सुतीति सुतं । ४. हारिमीयावृति, पृ.१० ५. (क) नन्दी चूणि, पृ. १३ : अवधीयते इति अवधि:, तेण Jain Education International ५१ 1 करीव विश्रम की दूसरी शताब्दी तक में सिद्ध हुई जान पड़ती है। पड़ता है। क्योंकि प्राचीन निर्युक्ति में मतिज्ञान के वास्ते मति वाऽवधीयते तहि वाज्वधीयते अवधानं वा अवधि 1 मर्यादेत्यर्थः । (ख) हारिभद्रीचा वृत्ति, पृ. १० (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ६५ ६. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ८४ ७. (क) हारिमीयावृत्ति, पृ. १९ (ख) मलयगिरीवा वृत्ति प. ६६ ८. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ८४ की वृत्ति । ९. ज्ञानविन्दुप्रकरणम्, परिचय, पृ. ५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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