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________________ नंदी अकलंक ने देशावधि और परमावधि के तीन-तीन भेद किए हैं . लोक देशावधि १. जघन्य-उत्सेधांगुल के असंख्येय भाग . मात्र क्षेत्र को जाननेवाला। २. उत्कृष्ट-संपूर्णलोक को जानने वाला। ३. अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम)-जघन्य और उत्कृष्ट का मध्यवर्ती। इसके असंख्येय विकल्प होते हैं। परमावधि १. जघन्य-एक प्रदेश अधिक लोक प्रमाण विषय को जानने वाला। २. उत्कृष्ट--असंख्यात लोकों को जानने । वाला । ३. अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम)-जघन्य और उत्कृष्ट के मध्यवर्ती क्षेत्र को जानने वाला। सर्वावधि उत्कृष्ट परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात लोक क्षेत्रों को जाननेवाला। इसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट कोई विकल्प नहीं होते। . अकलंक के अनुसार परमावधि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सर्वावधि से न्यून है इसलिए परमावधि भी वास्तव में देशावधि ही है। फलितार्थ यह है कि अवधिज्ञान के मुख्य दो ही भेद हैं—सर्वावधि और देशावधि । देशावधि आदि के विशद विवरण हेतु द्रष्टव्य धवला पु. ९ पृ. २६-४१ । सूत्र १०-१६ ८. (सूत्र १०-१६) आनुगामिक आनुगामिक का शाब्दिक अर्थ है-अनुगमनशील । यह अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है उस क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी विद्यमान रहता है । तत्त्वार्थभाष्य में इसे सूर्य के प्रकाश और घट की पाकजनित रक्तता से समझाया गया है।' इस अवधिज्ञान में आत्मप्रदेशों की विशिष्ट विशुद्धि होती है। चूणिकार ने इसे नेत्र के दृष्टांत से समझाया है। जैसे नेत्र मनुष्य के हर क्षेत्र में साथ रहता है वैसे ही आनुगामिक अवधिज्ञान हर क्षेत्र में साथ रहता है । वीरसेन ने धवला में आनुगामिक अवधिज्ञान के तीन प्रकार किए हैं१. क्षेत्रानुगामी-एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर अन्य क्षेत्र में विनष्ट नहीं होता। २. भवानुगामी-जो अवधिज्ञान वर्तमान भव में उत्पन्न होकर अन्य भव में जीव के साथ जाता है। ३. क्षेत्रभवानुगामी-यह संयोगजनित विकल्प है। ज्ञान परभविक होता है इसलिए आनुगामिक का भवानुगामी विकल्प बहुत सार्थक है । अंतगत और मध्यगत आत्मा शरीर के भीतर है और चेतना भी उसके भीतर है । इन्द्रिय चेतना की रश्मियां अपने-अपने नियत प्रदेशों के माध्यम १. तत्त्वार्थवार्तिक, १।२२।४ २. वही, पृ. ८३ : सर्वशब्दस्य साकल्यवाचित्वात् द्रव्यक्षेत्र कालभावैः सर्वावधेरन्तःपाती परमावधिः, अतः परमावधिरपि देशाव धिरेवेति द्विविध एवावधिः सर्वावधिबेशावधिश्च। ३. तत्त्वर्थाधिगमसूत्रम् १२३ का भाष्य : आनुगामिकं यत्र क्वचिदुत्पन्नं क्षेत्रान्तरगतस्यापि न प्रतिपतति, भास्कर प्रकाशवत् घटरक्तभाववच्च । ४. (क) नन्दी चूणि, पृ. १५ : अणुगमणसीलो अणुगामितो, तदावरणखयोवसमाऽऽतप्पदेसविसुद्धगमणत्तातो लोयणं व। (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २३ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ८१ (ग) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ७१५ ५. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९४ : जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं जीवेणं सह गच्छदि तमणुगामी णाम । तं च तिविहं खेत्ताणुगामी भवाणुगामी खेत्त-भवाणुगामी चेदि । तत्थ जमोहिणाणं एयम्मि खेत्ते उप्पण्णं संतं सग-परपयोगेहि सगपरखेत्तेसु हिडंतस्स जीवस्स ण विणस्सदि तं खेत्ताणुगामी णाम । जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं तेण जीवेण सह अण्णभवं गच्छदि तं भवाणुगामी णाम । जं भरहेरावद-विदेहादि खेत्ताणि देव-णेरइय-माणुस-तिरिक्खभवं पि गच्छदि तं खेत्त-भवाणुगामि त्ति भणिदं होदि। ६. भगवई, १३३९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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