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________________ ४६ २४. तं च दुविहं उप्पज्जइ, तं जहा उज्जुमई व विलमई व ॥ २५. तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओो । तं तत्थ दव्वओ णं उज्जुमई अनंते अत एसिए खंधे जाणइ पासइ । ते चैव विजलमई अब्भहियतराए विजलतराए विमुतराए विति मिरतराए जाइ पास कालओ णं उज्जुमई जहणेणं पलिओवमरस असंखिज्जयभागं उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखिज्जयभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ । तं चैव विलमई अमहियतरागं विउलतरागं विमुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ । भावओ णं उज्जुमई अनंत भावे जाणइ पास, सव्वभावाणं अनंतभागं जाणइ पासइ । तं चैव विलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ | तच्च द्विविधमुत्पद्यते, तद्यथा ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च । Jain Education International तत्समासतश्चतुर्विधं प्रशप्तं, तद्यथा - द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतः, भावतः । खेतओ णं उक्तुमई आहे जाव क्षेत्रतः ऋनुमतिः अधो यावदइमोसे रयणप्पमाए पुडवीए उबरिस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरिमहेट्ठिल्ले खुड्डागपयरे, उड्ढं जाव तनाधस्तने क्षुल्लकप्रतरे, ऊर्ध्व याव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं ज्ज्योतिष्कस्य उपरितनतले, तिर्यग् जाव अंतोमरस अड्डाइज्जेसु वावदन्तीमनुष्यक्षेत्रे अर्द्ध तृतीयेषु दीवसमुद्दे, पण्णरसमु कम्म- द्वीपसमुद्रेषु पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, भूमी, तौसाए अकम्मभूमीसु, त्रिशयकर्मभूमिषु षट्पञ्चाशद्अन्त पञ्चेन्द्रियाणां छप्पणए अंतरदीवगेसु सपोणं दॉपकेषु नि पंचेंद्रियाणं पज्जत्तयाणं मनोगए पर्याप्तकानां मनोगतान् भावान् भावे जाणइ पासइ । तं चेव जानाति पश्यति । तत् चैव विपुलविलमई अड्डाइज्जेहिमंगुलेहि मतिः तृतीयः अनेः अभ्यधिकअम्महियतरं बिजलतरं विसुद्वतरं तर विपुलतरकं विशुद्धतारकं वितिमिरतरं खेत्तं जाणइ पासइ । वितिमिरतरकं क्षेत्र जानाति पश्यति । कालतः नुमतिः जघन्येन असंख्येयतमभागं पत्योपमस्य उत्कर्षेण अपि पत्योपमस्य असंख्येयतमभागं अतीतमनागतं वा कालं जानाति पश्यति । तच्चैव विपुलमति: अभ्यधिकतरकं विपुलतरकं विशुद्धतरकं वितिमिरतरकं जानाति पश्यति । तत्र द्रव्यतः ऋजुमतिः अनन्तान् अनन्तप्रदेशिकान् स्कन्धान् जानाति पश्यति । तान् चैव विपुलमतिः अभ्यधिकारकान् विपुलतरकान् विशुद्धसरकान् वितिमिरतरकान् जानाति पश्यति । भावतः ऋजुमतिः अनन्तान् भावान् जानाति पश्यति, सर्वभावानामनन्तभागं जानाति पश्यति । तान् चैव विपुलमतिः अभ्यधिकतरकान् विपुलतरकान् विशुद्धतरकान् वितिमिरतकान् जानाति पश्यति । For Private & Personal Use Only नंदी २४. वह (मनः पर्यवज्ञान ) दो प्रकार से उत्पन्न होता है, जैसे १२. मिति २५. वह (मनः पर्यवज्ञान का विषय ) संक्षेप में चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः । द्रव्य की दृष्टि से ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी मनोवगंणा के अनंत अनंतप्रदेशी स्कन्धों को जानता देखता है। विपुलमति मनः पर्यवज्ञानी उन स्कन्धों को अधिकतर विपुलतर विशुद्धतर और उज्ज्वलतर रूप से जानता देखता है । क्षेत्र की दृष्टि से ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी नीचे की ओर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊर्ध्ववर्ती क्षुल्लकप्रतर से अधस्तन क्षुल्लकप्रतर तक ऊपर की ओर ज्योतिष्चक्र के उपरितल तक तिरछे भाग में मनुष्यक्षेत्र के भीतर अढाई द्वीप समुद्र तक पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अंतद्वीपों में वर्तमान पर्याप्तक समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता देखता है । विपुलमति मनः पर्यवज्ञानी उस क्षेत्र से अढाई अंगुल अधिकतर विपुलतर वितर और उ तर क्षेत्र को जानता देखता है । काल की दृष्टि से ऋजुमति मनःपानी जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग को, उत्कृष्टतः पत्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य को जानता देखता है। विपुलमति मनः पर्यवज्ञानी उस कालखंड को अधिकतर वितर विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता देखता है । भाव की दृष्टि से ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी अनंतभावों को जानता देखता है। सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता देखता है । विपुलमति मनः पर्यवहानी उन भावों को अधिकतर विपुलतरवितर और उलतर जानता देखता है।" www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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