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________________ १४ १. अकर्मवीर्य सामर्थ्यं । २. कैवल्य आदि विशिष्ट लब्धि का सामर्थ्यं । अकर्मवीर्यं श्रमण परम्परा का उल्लेखनीय अवदान है। वीर्य दो प्रकार का होता है-१. सकर्म वीर्य २. अकर्म वीर्य । सूत्रकृताङ्ग में वीर्य के इन दोनों प्रकारों का सुन्दर विवेचन मिलता है। व्रती मनुष्य के अकर्मवीर्य होता है । भगवान् महावीर में अकर्मवीर्य का सामर्थ्य था इसलिए उन्हें महात्मा कहा गया है । गाथा ४-१७ ११. ( गाथा ४-१७ ) जैन शासन में संघबद्ध साधना की पद्धति प्रारम्भ से रही है। तीर्थङ्कर का अर्थ ही है संबद्ध साधना का प्रवर्त्तक । साधु साध्वी श्रावक-श्राविका - यह चतुविध संघ है। तीर्थङ्कर इस चतुविध संघ का प्रवर्त्तन करते हैं । इतिहासविदों का मत है कि 7 संघबद्ध साधना का क्रम भगवान् पार्श्व ने शुरू किया था। प्रस्तुत आगम में संघ आठ उपमाओं के द्वारा वर्णित है १. संघ एक रथ है | २. संघ एक चक्र है । ३. संघ एक नगर है । ४. संघ एक पद्म है। ५. संघ चन्द्रमा है । ६. संघ सूर्य है । ७. संघ समुद्र है । ८. संघ मेरु है । १. संघ गतिशील और मार्गानुगामी होता है इसलिए उसकी रथ से तुलना की गई है। कहा भी है- आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि । अम्मापतीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसि ॥ २. संघ विजयी होता है इसलिए उसकी विजयक्षम चक्र के साथ तुलना की गई है। ३. नगर प्राकारयुक्त होने के कारण सुरक्षा देता है संघ भी साधक के लिए सुरक्षा देता है, इसलिए संघ की नगर के साथ तुलना की गई है। ४. जैसे पद्म जल में रहता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता वैसे संघ राग-द्वेषात्मक लोक में रहता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता। इस आधार पर संघ की पद्म के साथ तुलना की गई है। ५. सौम्यता और निर्मलता की दृष्टि से संघ की चन्द्रमा के साथ तुलना की गई है। ६. प्रकाशकता और तेजस्विता की दृष्टि से संघ की सूर्य के साथ तुलना की गई है। ७. अक्षुब्धता, विशालता और मर्यादा की दृष्टि से संघ की समुद्र के ८. स्थिरता और अप्रकम्पता की दृष्टि से संघ की मेरु पर्वत के साथ शब्द विमर्श नंदी गाथा ५ पारियल - भ्रमि* १. १९ २. भगवई, २०७४ : तित्थं पुण चाउवणे समणसंघे, तं जहा - समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ 1 ३. व्यवहारभाष्य, गा. १६८१ Jain Education International साथ तुलना की गई है । तुलना की गई है। ४. (क) नन्दी चूर्ण, पृ. ३ : जा बाहिरपुट्ठयस्स बाहिरब्भमी । (ख) हारिद्रयवृति, पृ. (ग) मलयगिरीया वृत्ति प. ४३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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