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________________ १५ प्र० १, गा० ४-१७, टि० ११ अप्पडिचक्क-अप्रतिद्वन्द्वी गाथा ६ शील-आचार-व्याख्याकारों ने अठारह हजार शीलाङ्गों का निर्देश किया है। द्रष्टव्य-दशवकालिक ८।४० का टिप्पण । तप-अनशन आदि नियम--इन्द्रिय और मन का संयम गाथा ७ रयण-चूर्णिकार, हरिभद्र और मलयगिरि ने 'सुयरयण' का अर्थ श्रुतरत्न किया है, किन्तु नाल के प्रसंग में रयण का रत्न अर्थ संगत नहीं लगता । इसलिए यहां 'सुयरयण' का अर्थ श्रुतरचना होना चाहिए। हमारे इस अनुमान की पुष्टि 'पुव्वगत' की व्याख्या में प्रयुक्त 'सुत्तरयण' शब्द से होती है । चूर्णिकार के अनुसार तीर्थङ्कर तीर्थ-प्रवर्तन काल में पहले पूर्वगत सूत्र का निरूपण करते हैं फिर गणधर आचारादि के क्रम से सूत्र की रचना करते हैं। इस प्रसंग में रयण का अर्थ रचना संगत लगता है।' कपिण्य-कणिका कमलगट्टा का कोष peracarf of a lotus चूर्णिकार ने कणिका का अर्थ बाह्यपत्र किया है।' हरिभद्र और मलयगिरि ने मध्यगण्डिका किया है।' केसराल-पुष्प का पक्षम Filament of a flower-चूर्णिकार ने 'केसराल' शब्द का संधिच्छेद केसर+आल कर आल का अर्थ 'अधिक योग युक्त किया है। वास्तव में यह मत्वर्थीय प्रत्यय होना चाहिए। मलयगिरि ने मत्वर्थीय प्रत्यय का उल्लेख किया है। गाथा ९ अकिरिय-नास्तिकवादी गाथा १० परतित्थिय-चूर्णिकार ने इस प्रसंग में हरि, हर, हिरण्य, शाक्य, वैशेषिक, चरक, तापस आदि का उल्लेख किया है।' हरिभद्र ने सांख्य, वैशेषिक और नैयायिक का उल्लेख किया है। मलयगिरि ने इनके अतिरिक्त सुगत का भी उल्लेख किया है। लेस्स--रश्मि-चूणिकार ने 'लेस्स' का अर्थ 'रस्सी' किया है ।१२ इस आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि लेस्स शब्द का संबंध लेश्या से नहीं, किन्तु रश्मि से है। "श्लिष्यते सा लेश्या' यह व्युत्पत्ति उत्तरकालीन है। चूर्णिकार ने लेश्या का अर्थ रश्मि, हरिभद्र ने दीधिति (रश्मि)" और मलय गिरि ने भास्वरता किया है। गाथा ११ धिइ-मन को नियन्त्रित करने वाली बुद्धि । रुंद-विशाल । अक्खोभस्स-अविचलनीय । १. मलयगिरीया वृत्ति, प. ४३ : न विद्यते प्रति अनुरूपं समानं ७. नन्दी चूणि, पृ. ४ : आलस्स त्ति-अधिकयोगयुक्तस्य चक्रं यस्य तदप्रतिचक्र। गुणकेसरालस्स मूलादि गुणकेसरयुक्तस्य । २. (क) नन्दी चूणि, पृ. ३ : बारसविहो तवो। ८. मलयगिरीया वृत्ति, प. ४४ (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ४३ ९. नन्दी चूणि, पृ. ४ : हरि-हर-हिरण्ण-सक्कोलूक-चरग३. नन्दी चूणि, पृ. ३ : इंदिय-णोइंदियो य णियमो। तावसादयो परतित्थिया गहा। ४. वही, पृ. ७५ : जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गण- १०. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७ : परतीथिका-कपिल-कणभक्षाधराण सव्वसुताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगतसुतत्थं भासति ऽक्षपादादिमतावलम्बिनः । तम्हा पुव्व ति भणिता, गणधरा पुण सुत्तरयणं करेन्ता ११. मलयगिरीया वृत्ति, प. ४५: कपिलकणभक्षाक्षपादसुगताआयाराइकमेण रयंति टुवेंति य । दिमतावलम्बिनः। ५. वही पृ. ४ : कण्णिय त्ति बाहिरपत्ता। १२. नन्दी चूणि, पृ. ४ : लेस्सत्ति--रस्सीयो। ६. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६ : मध्यगण्डिका। १३. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७ (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ४४ १४. मलयगिरीया वृत्ति, प.४५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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