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________________ प्र० १, गा० १,२, टि० ४-१० ७. विजयी हो ( जयइ ) यह क्रियापद है | इसका अर्थ है जीतना । इस क्रियापद का प्रयोग महावीर की स्तुति में हुआ है। वे मुनि हैं। राजा के संदर्भ में 'जयइ' शब्द का प्रयोग शत्रु जीतने के अर्थ में होगा । इस आशंका को ध्यान में रखकर चूर्णिकार ने छः जेय वस्तुओं का निर्देश किया है' १. इन्द्रिय-विषय २. कषाय ३. परीषह ४. उपसर्ग ५. घाति कर्म अथवा अष्टविध कर्म ६. परप्रावादुक । हरिभद्र और मलयगिरि की व्याख्या में जेय वस्तुओं का क्रम भिन्न है । १. इन्द्रिय - विषय २. कषाय ३. घातिकर्म अथवा भवोपग्राही कर्म । मलयगिरि ने हरिभद्र से अतिरिक्त परीषह और उपसर्ग का भी उल्लेख किया है ।" 'जय' इस क्रियापद का निर्देश वर्तमान और अतीत दोनों अर्थों में किया गया है । इन्द्रिय विषय और कषाय — इन्हें महावीर केवली बनने से पूर्व जीत चुके थे। परीवह और उपसर्ग को भी जीत रहे थे। इसलिए प्रस्तुत क्रियापद अतीत और वर्तमान दोनों का गमक है । सूत्रकार महावीर की स्तुति में उनका साक्षात्कार कर रहे हैं इसलिए अतीत के अर्थ में वे वर्तमान क्रियापद का प्रयोग करते हैं । ८. शास्त्रों के उद्भावक (सुमाणं पभवो) मूल स्रोत प्रस्तुत प्रकरण में श्रुत का अर्थ है आगम । अनुयोगद्वार में श्रुत और आगम एकार्थक बतलाए गए हैं। * श्रुत के तीर्थङ्कर होते हैं इसलिए उन्हें श्रुत का प्रभव कहा गया है। जिनभद्रगणि ने लिखा है कि श्रुत तीर्थङ्कर से प्रवृत्त होता है ।" ६. तीर्थङ्करों में अन्तिम ( अपच्छिमो ) १०. महात्मा ( महप्पा ) महावीर चरम तीर्थङ्कर थे फिर भी उन्हें अपश्चिम कहा गया। चूर्णिकार ने इसके दो हेतु बतलाए हैं १. पश्चिम शब्द इष्ट नहीं है अतः अनिष्ट का परिहार करने के लिए अपश्चिम शब्द का प्रयोग किया गया है। पूर्वी के अनुसार महावीर प्रथम और ऋषभ अन्तिम सीमंडुर होते हैं। २. मलयगिरि ने व्याकरण की दृष्टि से इसका तीसरा अर्थ किया है। इस अवसर्पिणी कालखण्ड में महावीर के पश्चात् कोई तीर्थङ्कर नहीं होगा इसलिए वे अपश्चिम हैं । गाथा २ चूर्णिकार ने महावीर को महात्मा कहने के दो कारण बताए हैं. १. पृ. १ सोलिदियादिविसय-साय परीसहोवसग्ग-चउधातिकम्म- ऽट्ठपगारं वा परप्पवादिणो य जिणमाणो जितेंसु वा जयति त्ति भण्णति । २. हारिभद्रया वृत्ति, पृ. २ ३. मलयगिरीया वृत्ति, प. ३ ४. दारा सू. ५१ 1 ५. विशेषावश्यकभाष्य, गा. १११९ : अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ॥ १३ Jain Education International ६. नन्दी चूर्ण, पृ. २ अपरिहारतो पन्छियो वि अपच्छिमो भण्णति, अहवा पच्छाणुपुव्वीए अपच्छिमो, रिसभो पच्छिमो । ७. मलयगिरीया वृत्ति प. २१ ८. नन्दी चूर्ण, पृ. २: महं आता जस्स सो य अकम्मवीरियसामान्यतो महात्मा, केवलादिविद्विसात्वतो वा महात्मा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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