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________________ १० ३९. भूमे वंदेहं भूयदिण्णमारिए । भव भय वुच्छेयकरे, सीसे नागज्जुरिसीणं ॥ ४०. सुमुणिय णिच्चाणिच्चं, मुमुनि सुत्तस्य धारयं निवं । वंदेहं लोहिच्चं सम्भावम्भावणा-तरचं ॥ ४१. अस्य महत्य-क्खाणि सुसमणक्या कहण निव्वाणि ॥ पवईए महरवाणि पओ पणमाणि दूसर्गाण || ४२. सुकुमाल - कोमल-तले, (विसेस) तेस पणमामि लवण-सत्ये । पाए पावयणीणं, पाडिच्छगस एहिं पणिवइए || ४३. जे अन्ने भगवंते, कालिय- सुय आणुओगिए धीरे । ते पण मिऊण सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं || परिसा-पदं ४४. १. सेल-घण २. कुडग ३. चालण, ४. परिपूणग ५. हंस ६. महिस ७. मे से य । ८. मग . जलूग १०. बिराली, ११. जाग १२. गो १३. मेरि १४. आभीरी ।। १. सा समास तिविहा पण्णत्ता, तं जहा जाणिवा, अजाणिया, दुब्वियड्डा ॥ Jain Education International भूतहित- प्रगल्भान्, वन्देऽहं प्राचार्यान् । भव-भय-करा शिष्यान नागार्जुनऋषीणाम् ॥ ( विशेषकम् ) मुज्ञात-नित्यानित्यं 1 सुशात सुत्रार्थ धारकं नित्यम्। वन्दे लोहित्य सद्भावनोद्भावना तथ्यम् ॥ अर्थ- महार्थखानि सुखमणव्याख्यान-निर्वृतिम् । प्रकृत्या मधुरवाणीकं, प्रयतः प्रणमामि दृष्यगणिनम् ॥ सुकुमार- कोमल लागू, तेषां प्रणमामि लक्षण प्रशस्तान् । पादान् प्रावचनिनां प्रातिदिशः प्रणिपतितान् ॥ ये अन्ये भगवन्तः, कालिक-त-अनुयोगकान् धीरान् । तान् प्रणम्य शिरसा, ज्ञानस्य प्ररूपणां वक्ष्ये ॥ परिषद्-पदम् १. शैल-घन २. कुटक ३. चालनी, ४. 'परिपूणग' ५. हंस ६ महिष ७. मेषश्च । ८. मशक ९. जलौका १०. विडाली ११. जाहक १२. गो १३,१४. भेर्याभीर्यः ॥ १. सा समासतः त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाज्ञा, अज्ञा, दुर्विदग्धा । For Private & Personal Use Only नंदी संसार के भय का विच्छेद करने वाले हैं, उन नागार्जुन ऋषि के शिष्य श्री भूतदिन्न आचार्य को मैं वंदना करता हूं।" ४०. जो नित्यानित्य पदार्थों को जानने वाले हैं, नित्य सुविदित सूत्र और अर्थ के धारक हैं तथा पारमार्थिक पदार्थ का तथ्य के रूप में उद्भावन करने वाले हैं, उन लोहित्य नामक आचार्य को वंदना करता हूं। २४ ४१. जो अर्थ और महार्थ के आकर हैं, प्रकृति से ही मधुर वाणी वाले हैं, जिनकी व्याख्यान विधि श्रोतागण को शांति देने वाली है, उन श्री दूष्यगणि को संयत होकर प्रणाम करता हूँ । ४२. मैं सैकड़ों उपसम्पन्न मुनियों से नमस्कृत, सुकुमार, कोमलतल तथा प्रशस्त लक्षण वाले उन प्रावचनिकों के चरणों में नमस्कार करता हूं।" ४३. अन्य कालिक श्रुत अनुयोग को धारण करने वाले धीर भगवान् हैं, उनको शिरसा नमस्कार कर ज्ञान की प्ररूपणा करूंगा ।२६ परिषद्-पद ४४. " वाचना के योग्य और अयोग्य मुद्ग शैल-घन, घट, चालनी, बया का घौसला, हंस, महिष, मेष, मशक, जलौका, बिल्ली, जाहक, गौ, भेरी और आभीरी - इस प्रकार श्रोता अनेक प्रकार के होते हैं। १. श्रोता की परिषद् संक्षेपतः तीन प्रकार की प्रज्ञप्त हैं-- १. ज्ञा २. अज्ञा ३. दुर्विदग्धा । www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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