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________________ टिप्पण गाथा १ १. जगत के समस्त जीवों की उत्पत्ति के ज्ञाता (जगजीवजोणी-वियाणओ) जीव और उसके उत्पत्ति स्थानों पर जितना विचार जैन दर्शन ने किया है उतना विश्व दर्शन में किसी ने नहीं किया है। 'जीवों के छः निकाय हैं' यह जैन दर्शन की मौलिक स्थापना है । चूर्णिकार ने 'जीवजोणी-वियाणओ' के तीन अर्थ किए हैं १. जीवों की सचित्त-अचित्त आदि नौ तथा चौरासी लाख योनियों की उत्पत्ति स्थान के ज्ञाता। २. कौन जीव किस कर्म के द्वारा किस योनि में उत्पन्न होता है, इसका विज्ञाता-कर्म और कर्मानुसारी उत्पत्ति स्थान का विज्ञाता। ३. जगत् (अजीव द्रव्य) और जीव दोनों के उत्पत्ति स्थानों का ज्ञाता-जैसे जीव और अजीव उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं और स्थिर रहते हैं उसका ज्ञाता । हरिभद्र और मलयगिरि ने केवल प्रथम अर्थ का उल्लेख किया है।' 'जगजीवजोणी-वियाणओ' इसके तात्पर्यार्थ में तीनों व्याख्याकार एकमत हैं। उसका आशय यह है कि भगवान् केवलज्ञान के सामर्थ्य से सर्वथा सब भावों को जानते हैं।' २. जगत् के गुरु (जगगुरु) चूर्णिकार ने जगत् का अर्थ समनस्क जगत् किया है। भगवान् उसके लिए अर्थ का प्रतिपादन करते थे इसलिए उन्हें जगत् गुरु कहा गया है। चूर्णिकार का यह अर्थ रहस्यपूर्ण है। अर्थ को समझने के लिए केवल भाषा पर्याप्त नहीं है उसके लिए ईहा, अपोह, विमर्श और मार्गणा--ये सब आवश्यक होते हैं। ये सब मन के कार्य हैं। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि भाषा और मन दोनों का योग होने पर ही अर्थ का बोध हो सकता है । इसलिए चूर्णिकार ने जगत् का अर्थ समनस्क लोक किया है वह समीक्षापूर्वक किया गया है।' हरिभद्र और मलयगिरि की व्याख्या में जगत् का अर्थ संज्ञी-लोक विवक्षित नहीं है। ३. जगत को आनन्द देने वाले (जगाणंदो) चूर्णिकार ने जगत् के तीन अर्थ किए हैं -- १. किसी भी प्राणी का वध मत करो-यह उपदेश जगत् को आनन्द देने वाला है। इसलिए भगवान् जगदानन्द-प्राणी १. नन्दी चूणि, पृ. १ : जगं ति--खेत्तलोगो तम्मि जे जीवा जाणति । तेसि जाओ जोणीओ-सच्चित्त-सीत-संवुडादियाओ ४. नन्दी चूणि, पृ. २ : 'जगगुरु' ति जगं ति-सव्वसण्णिचउरासीतिलक्खविहाणा वा विविहपगारेहिं जाणमाणो लोगो, तस्स भगवानेव गुरुः । वियाणओ। अहवा जो जहा जेहिं कम्मेहि जाए जोणीए ५. नवसुत्ताणि, नंदी सू. ६२ उववज्जति तं तहा जाणति त्ति विसिट्ठो जाणगो वियाणगो। ६. नन्दी चूणि, पृ. २ : जगं त्ति-~-सव्वसण्णिलोगो। अहवा जगग्गहणातो धम्मा-ऽधम्मा-ऽऽगास-पुग्गलग्गहणं, ७. वही, पृ. २ : जगा-सत्ता ताण आणंदकारी जगाणंदो। जीव त्ति सव्वजीवग्गहणं, जोणि त्ति-जीवाऽजीवुप्पत्ति कहं ? उच्यते--सव्वेसि सत्ताणं अव्वावादणोवठाणं, जहा यजं उप्पज्जति विगच्छति धुवं वा तं तहा देसकरणतातो। जतो भणितं-'सब्वे सत्ता ण हंतव्वा ण सव्वं जाणइ त्ति वियाणगो। परियावेतव्वा ण परिघेतव्वा ण अज्जावेतब्ब' त्ति । विसेसतो २. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३ सण्णीणं धम्मकहणत्तातो आणंदकारी, ततो वि विसेसतो (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. ३ भव्वसत्ताणं ति । अनेन वचनेन हितोपदेशकर्तृत्वं दर्शितं ३. नन्दी चूणि, पृ. १ : केवलणाणसामत्थतो सब्वभावे सव्वहा भवति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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