SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला प्रकरण : श्रुतधर परम्परा : गाथा २३-३८ ३१. जच्चजण-धाउसमप्पहाण जात्याञ्जन-धातुसमप्रभाणां मुद्दीय-कुवलयनिहाणं । मृद्वीका-कुवलयनिभानाम् । वड्ढउ वायगवंसो, वर्धतां वाचकवंशो, रेवइनक्खत्तनामाणं ॥ रेवतीनक्षत्रनाम्नाम् ॥ ३१. जात्यअंजन धातु के समान कान्तिवाला, परिपक्व, द्राक्षा और नीलकमल की प्रभा वाला रेवती नक्षत्र नामक वाचक वंश वृद्धि को प्राप्त है। ३२. अयलपुरा निक्खंते, कालियसुय-आणुओगिए धीरे। बंभद्दीवग-सीहे, वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥ अचलपुरात् निष्क्रान्तान्, कालिकश्रुत-अनुयोगिकान् धीरान् । ब्रह्मद्वीपिक-सिंहान् वाचकपदमुत्तमं प्राप्तान् ॥ ३२. अचलपुर से अभिनिष्क्रमण कर, कालिक श्रुत के अनुयोग को धारण करने वाले, धीर, ब्रह्मदीपक शाखा में प्रवजित होने वाले सिंह मुनि उत्तम वाचक पद को प्राप्त हुए। ३३. जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अड्ढभरहम्मि। बहनयर-निग्गय-जसे, ते वंदे खंदिलायरिए॥ येषाम् अयम् अनुयोगः, प्रचरति अद्यापि अर्द्धभरते। बहुनगर-निर्गत-यशसः, तान् वन्दे स्कन्दिलाचार्यान् ॥ ३३. जिनका अनुयोग आज भी अर्द्धभरत में प्रचलित है और यश बहुत नगरों में फैला हुआ है उन स्कन्दिलाचार्य को वंदना करता ३४. तत्तो हिमवंतमहंत-विक्कमे धिइ-परक्कममणते। सज्झायमणंतधरे, हिमवंते वंदिमो सिरसा॥ ततो हिमवन्महा-विक्रमान् अनन्तधृतिपराक्रमान् । अनन्तस्वाध्यायधरान्, हिमवतो वन्दामहे शिरसा ॥ ३४. हिमालय की तरह महान् विक्रम वाले, व्यापक सामर्थ्य वाले, महान् धृति और पराक्रम वाले, अनंत स्वाध्याय करने वाले श्री हिमवंत आचार्य को नतमस्तक वंदना करता हूं।" ३५. कालियसुयअणुओगस्स धारए धारए य पुव्वाणं । हिमवंतखमासमणे, वंदे णागज्जुणायरिए॥ कालिकश्रुतानुयोगस्य धारकान् धारकान च पूर्वाणाम् । हिमवतः क्षमाश्रमणान्, वन्दे नागार्जुनाचार्यान् ॥ ३५. कालिक श्रुत-अनुयोग के धारक तथा पूर्वो के धारक श्री हिमवंत क्षमाश्रमण को और उनके शिष्य नागार्जुनाचार्य को वंदना करता ३६. मिउ-मद्दव-संपण्णे, अणुपुवि वायगत्तणं पत्ते । ओह-सुय-समायारे, नागज्जुणवायए वंदे ॥ मृदु-मार्दव-सम्पन्नान्, आनुपूर्व्या बाचकत्वं प्राप्तान् । ओघ-श्रुत-समाचारान्, नागार्जुनवाचकान् वन्दे ॥ ३६. जो मृदु मार्दव सम्पन्न क्रमश: वाचक पद को प्राप्त हुए और जिन्होंने उत्सर्ग श्रुत (कालिक-श्रुत) का समाचरण किया-इसकी परम्परा को आगे बढ़ाया, संधान किया। उन वाचक नागार्जुनाचार्य को बंदना करता ३७. वरतविय-कणग-चंपग वरतप्त-कनक-'चंपग'विमउल-वरकमल-गब्भ-सरिवणे। विमुकुल-वरकमल-गर्भ-सदृग्वर्णान् । भविय-जण-हियय-दइए, भविक-जन-हृदय-दयितान, दया-गुण-विसारए धीरे ॥ दया-गुण-विशारदान् धीरान् ॥ ३७-३९, जो श्रेष्ठ तपाए हुए स्वर्ण, चम्पा के पुष्प और विकस्वर कमल के पराग के समान वर्णवाले हैं। भव्यजन के लिए हृदयहारी हैं, दया गुण में विशारद और धीर हैं, अर्द्धभरत में युग प्रधान एवं बहुविध स्वाध्यायवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं, अनुयोग में (वैयावृत्त्य आदि में) जिन्होंने अपने साधुओं को नियोजित किया है। नाइलकुलवंश को प्रमुदित करने वाले हैं, जो प्राणियों का हित करने में प्रगल्भ हैं औ, ३८. अड्ढभरह-प्पहाणे, बहुविह-सज्झाय-सुमुणिय-पहाणे । अणुओगिय-वर-वसभे, नाइल-कुलवंस-नंदिकरे। अर्द्धभरत-प्रधानान्, बहुविध-स्वाध्याय-सुज्ञात-प्रधानान् । अनुयोजित-वर-वृषभान्, नागिल-कुलवंश-नन्दिकरान् । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy