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________________ नंदी थेरावलिया स्थविरावलिका स्थविर-आवलिका २३. सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिज्जंभवं तहा॥ सुधर्माणम् अग्निवैश्यायनं, जम्बूनाम च काश्यपम् । प्रभवं कात्यायनं वन्दे, वात्स्यं शय्यंभवं तथा ॥ २३. अग्निवेश्यायन गोत्रीय सुधर्मास्वामी, काश्यप गोत्रीय जम्बू, कात्यायन गोत्रीय प्रभव और वात्स्यगोत्रीय शय्यंभव को वंदना करता २४. जसभदं तुगियं वंदे, संभयं चेव माढरं। भद्दबाहुं च पाइण्णं, थूलभदं च गोयमं ॥ यशोभद्रं तुङ्गिकं वन्दे, सम्भूतञ्चव माढरम् । भद्रबाहुञ्च प्राचीनं, स्थूलभद्रञ्च गौतमम् ॥ २४. तुंगिक गोत्रीय यशोभद्र, माठर गोत्रीय संभूत, प्राचीन गोत्रीय भद्रबाहु और गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र को वंदना करता हूं।" २५. एलावच्चसगोतं, वंदामि महागिरि सुत्थि च । तत्तो कोसियगोतं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे ॥ एलापत्यसगोत्र, वन्दे महागिरि सुहस्तिनञ्च । ततः कौशिकगोत्र, बहुलस्य सदृग्वयसं वन्दे ॥ २५. एलापत्य सगोत्रीय महागिरि और सुहस्ति अथवा वशिष्ठ सगोत्र सुहस्ति तथा कोशिक गोत्रीय बहुल के यमल भ्राता बलिस्सह को मैं बंदना करता हूं।१५ २६. हारियगुत्तं साई, च वंदिमो हारियं च सामजं । वंदे कोसियगोतं, संडिल्लं अज्जजीयधरं ॥ हारीतगोत्रं स्वाति, च वन्दामहे हारीतञ्च श्यामार्यम् । वन्दे कौशिकगोत्र, शांडिल्यम् आर्यजीतधरम् ॥ २६. हारित गोत्रीय स्वाति और श्यामार्य, कोशिक गोत्रीय आद्य जीतधर शाण्डिल्य को वंदना करता हूं।" २७. तिसमुद्द-खाय-कित्ति, दीवसमुद्देसु गहिय-पेयालं। वंदे अज्जसमुदं, अक्खुभिय-समुद्द-गंभोरं ॥ त्रिसमुद्र-ख्यात-कोति, द्वीपसमुद्रेषु गृहीत-'पेयालं'। वन्दे आर्यसमुद्रम्, अक्षुभित-समुद्र-गम्भीरम् ॥ २७. तीन समुद्रों तक जिनकी ख्याति फैली हुई है, द्वीप और समुद्रों की प्रज्ञप्ति को जो जानते हैं तथा सागर की भांति जो अक्षुभित और गंभीर हैं। उन आर्य समुद्र को वंदना करता हूं।" २८. जो अध्ययनशील, सूत्र के अर्थ का ध्यान करने वाले, ज्ञान के प्रवाह को आगे बढ़ाने वाले, ज्ञान, दर्शन आदि गुणों की प्रभावना करने वाले हैं। उन श्रुत सागर के पारगामी, धीर आर्य मंगू को वंदना करता हूं। २८. भणगं करगं झरगं, पभावगं णाण-दसण-गुणाणं । वंदामि अज्जमंगु, सुय-सागर-पारगं धोरं ॥ भणकं कारकं क्षरकं, प्रभावकं ज्ञान-दर्शन-गुणानाम् ।। वन्दे आर्यमगं, श्रुत-सागर-पारगं धीरम् ॥ २६. नाणम्मि दंसणम्मि य, तव-विणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अज्जं नंदिलखमणं, सिरसा वंदे पसण्णमणं ॥ ज्ञाने दर्शने च, तपो-विनये नित्यकालमुद्युक्तम् । आर्य नन्दिलक्षपणं, शिरसा वन्दे प्रसन्नमनसम् ॥ २९. ज्ञान, दर्शन, तप और विनय में सदा उद्यत रहने वाले, प्रसन्नमना नंदिल क्षपण को मैं सिर झुकाकर वंदना करता हूं। ३०. वड्ढउ वायगवंसो, जसवंसो अज्ज-नागउत्थीणं । वागरण-करण-भंगीकम्मपयडी-पहाणाणं॥ वर्धतां वाचकवंशो, यशोवंशो आर्य-नागहस्तिनाम् । व्याकरण-करण-भंगी, कर्मप्रकृति-प्रधानानाम् ॥ ३०. व्याकरण, करण (गणित, ज्योतिष) भंग रचना और कर्म प्रकृति की प्ररूपणा में प्रधान आर्य नागहस्ती का यशस्वी वाचक वंश वृद्धि को प्राप्त हो। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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