________________
पहला प्रकरण : श्रुतधर परम्परा : गाथा ८-२२ १६. विणय-णय-पवर-मुणिवर-फुरंत- विनय-नत-प्रवर-मुनिवर-स्फुरद्
विज्जु-ज्जलंत-सिहरस्स। विद्युज्ज्वलच्छिखरस्य। विविहगुण-कप्परक्खग-फलभर- विविधगुण-कल्परक्षक-फलभरकुसुमाउल-वणस्स ॥
कुसुमाकुल-वनस्य ॥
१६. जो विनय से नमे हुए श्रेष्ठ मुनिवरों की
स्फुरित विद्युत (तपस्या) से जाज्वल्यमान शिखरों वाला है, जो प्रावचनिक (ओचार्य) के विविध गुणों रूप कल्पवृक्षों के फलों और पुष्पों से आकुल वनों वाला है।
१७. नाण-वररयण-दिपंत-कंत
वेरुलिय-विमल-चूलस्स। वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स ॥
(छहिं कुलयं)
ज्ञान-वररत्न-दीप्यमान-कान्तवैडूर्य-विमल-चूडस्य । बन्दे विनयप्रणतः, संघमहामन्दरगिरेः॥
(षड्भिः कुलकम्)
१७. जिसके प्रधान ज्ञान रूपी वैडूर्य रत्न से दीप्य
मान कांत, विमल चूला है उस संघ महामंदराचल को विनय-प्रणत होकर वंदना करता
तित्थगरावलिआ १८. वंदे उसभं अजिअं, संभवमभिनंदणं सुमइ-सुप्पभ
सुपासं। ससि-पुप्फदंत-सीयलसिज्जंसं वासुपुज्जं च ॥
तीर्थकरावलिका वन्दे ऋषभम् अजितं, सम्भवम् अभिनन्दनं सुमति-सुप्रभ
सुपार्श्वम् । शशि-पुष्पदन्त-शीतलश्रेयांसं वासुपूज्यञ्च ॥
तीर्थकर-आवलिका १८,१९. ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन,
सुमति, सुप्रभ (पद्मप्रभु), सुपार्श्व, चन्द्र (शशि), पुष्पदंत (सुविधि), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान (महावीर) को वंदना करता
१६.विमलमणंत य धम्म,
संति कुंथु अरं च मल्लि च। मुणिसुव्वय-नमि-नेमि पासं तह वद्धमाणं च ॥ (जुम्म)
विमलमनन्तं च धर्म, शान्तिं कुन्थुम् अरञ्च मल्लिञ्च । मुनिसुव्रत-नमि-नेमि, पावं तथा वर्धमानञ्च ॥ (युग्मम्)
गणहरावलिआ २०. पढमित्थ इंदभूई,
बीए पुण होइ अग्गिभूइ त्ति । तइए य वाउभूई, तओ वियते सुहम्मे य॥
गणधरावलिका प्रथमोऽत्र इन्द्रभूतिः, द्वितीयः पुनर्भवति अग्निभूतिरिति । तृतीयश्च वायुभूतिः ततो व्यक्तः सुधर्मा च॥
गणधर-आवलिका २०,२१. प्रथम इन्द्रभूति तथा अग्निभूति, वायुभूति,
व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकंपित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर हैं।
२१. मंडिय-मोरियपुत्ते,
अकंपिए चेव अयलभाया य । मेयज्जे य पहासे य, गणहरा हंति वीरस्स ॥ (जुम्म)
मण्डित-मौर्यपुत्रौ, अकम्पितश्चैव अचलभ्राता च । मैतार्यश्च प्रभासश्च, गणधराः सन्ति वीरस्य ॥ (युग्मम्)
सासण-त्थुई २२. निव्वुइ-पह-सासणयं,
जयइ सया सव्वभावदेसणयं । कुसमय-मय-नासणयं, जिणिदवरवीरसासणयं ॥
शासन-स्तुति निर्वति-पथ-शासनकं, जयति सदा सर्वभावदेशनकम् । कुसमय-मद-नाशनकं, जिनेन्द्रवरवीरशासनकम् ॥
शासन-स्तुति २२. मोक्ष के प्रतिपादक, सब पदार्थों के प्ररूपक,
कुत्सित सिद्धांतों के मदनाशक जिनेन्द्रबर श्री महावीर का शासन विजयी हो ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org