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८. सावगजणम अरिपरिवुडस्स जिणसूर तेयबुद्धस्स | संघपउमस्स भद्दं,
श्रावकजन मधुकरीपरिवृतस्य जिनसुर-तेजोबुद्धस्य । संघपद्मस्य भद्रं,
समणगण सहस्सपलस्स ।। (डुम्मं ) श्रमणवण सहस्रपत्रस्य ।। ( पुग्मम्)
६. तव - संजम - मय-लंछन ! अकिरिय-राहुमुह- वुद्धरिस! निच्चं जय संघचंद !
निम्मल सम्मत्त - विसुद्ध जुहागा !
१०. परतिस्थिय गह पह-नासगस्स तवतेय दित्तलेसरस । नाणुज्जोयस्स जए, भई दमसंघसू रस्स ।।
११. भई धिड़ बेला-परिगयस्स सज्झायजोग-मगरस्स । अक्खोभस्स भगवओ, संघसस इंडस्स ।।
१२. सम्म हंसण - वइर-दड-रूडगाढाबाट पेटस्स ।
धम्मवर रवण-मंडिय चामीयर मेलागस्स ॥
१३. नियमूसिय- कणय- सिलायलुज्जलजयंत-चित्तकूडल्स | नंदणवण मणहर-सुरभिसील - गंधुद्धमायस्स ॥
१४. जीव-सुंदर-कंदरुहरिय मुणिवर- मइंद- इण्णस्स । हेउस धाउ पगलत रयण दित्तोसहि-गुहस्स ||
१५. संवर-वरजल-पगलिय- उज्झरप्पविरायमाण- हारस्स । सावग जण पउर-रवंतमोर - णच्चंत कुहरस्स ॥
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तपः:-संयम-मृग-लाञ्छन ! अभिय-राहुमुख- दुष्य ! नित्यम् । जय संघचन्द्र ! निर्मल-त्व विशुद्धज्योत्स्नाक !
परतीर्थिक ग्रह - प्रभा नाशकस्य, तपस्तेजो- दीप्तरश्मेः ।
ज्ञानोद्योतस्य जगति, भद्रं दमसंघसूरस्य ॥
पति-देता-परिणतस्व, स्वाध्याययोग मकरस्य । अक्षोभ्यस्य भगवतः, संघसमुद्रस्य 'दस्य' ॥
सम्य
गाढावगाढ- पीठस्य । धर्मवर - रत्न- मण्डितचामीकर-मेखलाकस्य ॥
नियमकनक शिलातलोच्छ्रितोज्ज्वलज्वलत्-चित्रकूटस्य । नन्दनवन - मनोहर- सुरभिशील 'गंधुधमायस्य' ॥
जीवदया सुन्दर-कन्दत मुनिवर मृगेन्द्रकीर्णस्य । हेतुशत धातु- प्रगलद् - रत्न दीप्तोषधि-गुहस्य ||
संबर-बरजत-प्रगलितोञ्झरप्रविराजमान हारस्य ।
श्रावक जन प्रचुर रवन्नृत्यन्मयूर-कुरस्य ॥
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नंदी
८. श्रावक रूप मधुकरों से घिरा हुआ है और जिनेश्वर देवरूप सूर्य से विकसित है, ऐसे संघ कमल का कुशल हो ।
९. तप-संयम रूप मृग लांच्छन वाले, अक्रियावादी, नास्तिक राहुओं के मुंह से अपराजित हे निर्मल सम्यक्त्व रूप विशुद्ध ज्योत्सना वाले संघचन्द्र ! तुम विजयी हो ।
१०. जो अन्यतीर्थिक ग्रहों की प्रभा क्षीण करने वाले, तप तेज से दीपन लेश्या वाले हैं और ज्ञान से उद्योतवान् है, ऐसे उपशम प्रधान सूर्य का शुभ हो ।
११. जो धैर्य रूप वेला से युक्त है, स्वाध्याय योग रूप मकरों वाला है, अप्रकंपित है, विस्तीर्ण है, वह संघ समुद्र शिव को प्राप्त करे ।
१२. जिसके दृढ़ रूढ़ [ चिरकाल से समागत] गाढ़ [ तीव्र तत्त्वरुचि से युक्त ] अवगाढ़ गहरी [पदार्थों के चार्थ ज्ञान से युक्त ] सम्यक् दर्शन रूप वज्रमय पीठ है। जो धर्म रूप श्रेष्ठ रत्नों से जड़े हुए स्वर्ण के कन्दोरे वाला है ।
१३. जो नियमरूप कनक शिलातल से ऊंचा बना हुआ है । जो उज्ज्वल ज्वलंत चित्त रूप चोटियों वाला है। जो नन्दनवन की मनोहर सुरभि रूप शील गंध से परिव्याप्त है ।
१४. जीवदया रूप सुन्दर कन्दरा वाला है । अहिंसा के प्रति दर्पित मुनिवर रूपी मृगेन्द्रों से आकीर्ण है । व्याख्यानशालाओं में सैकड़ों हेतु रूप [ अन्वयव्यतिरेक] धातुओं के द्वारा निष्यंदमान श्रुतरत्न और दीप्त औषधिवाला है ।
१५. संवर रूप निरन्तर भरने वाले श्रेष्ठ प्रवाह रूप हार वाला है और जो विविध शब्द करते हुए (स्तुति स्तोत्र आदि के द्वारा) श्रावक रूप मयूरों के प्रचुर सशब्द नृत्यवाला है, जहां शास्त्र मंडप आदि रूप कुहर है ।
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